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तृतीयोन्मेषः
३०३ भांति, जैसे पहले (उपमेयोपमा अनन्वय आदि का अलङ्कारत्व नहीं हुआ) प्रत्येक के प्रधान होने के कारण तथा नियम का निश्चय न होने से ( कोई ) कहीं किसी का अलङ्कार नहीं होता। उसी प्रकार यहाँ पर भी उन दोनों का उतने ही स्वरूप के कारण परस्पर अलङ्कारभाव नहीं होगा। क्योंकि निर्वृति प्राधान्य में ही प्रयुक्त होती है। रूपान्तर के निरूव हो जाने पर फिर भी साम्य का सद्भाव होने पर यह उपमिति ही उपयुक्त अलंकार होगी। उपमा पहले की तरह ही रहेगी। यथा
सदयं बुभुजे महाभुजः सहसोद्रेगमियं व्रजेदिति ।
अचिरोपनतां स मेदिनी नवपाणिग्रहणां वधूमिव ।। १३७ ।। बलात्कार से ( कहीं) यह डर न जाय इसलिए दीर्घ बाहुओं वाले ( राजा अज ) ने तत्काल ( नवीन रूप से ) प्राप्त हुई पृथिवी का नवविवाहिता वधू के समान कृपापूर्वक भोग किया था ॥ १३७ ॥
इसके बाद कुन्तक परिवृत्ति के कुछ प्रकारों का भी भेद निरूपण करते हैं जैसे एक प्रकार की परिवृत्ति वहाँ होती है जहाँ 'विषयान्तरपरिवर्तन' होता है तथा दूसरी परिवृत्ति वहाँ होती है जहाँ धर्मान्तरपरिर्तन' होता है। उनमेंविषयान्तरपरिवर्तनोदाहरणं यथा-,
स्वल्पं जल्प बृहस्पते ! सुरगुरो ! नैषा सभा वत्रिणः ।।१३८॥ ( विषयान्तर परिवर्तन का उदाहरण जैसे )हे देवगुरु बृहस्पति थोड़ा बोलो, यह इन्द्र की सभा नहीं है ॥ १३८ ।। (धर्मान्तरपरिवर्तनोदाहरणं यथा-) विसृष्टरागादधारान्निवर्तितः स्तनाङ्गरागारुणिताच कन्दुकात् । कुशाङ्कुरादानपरिक्षताङ्गुलिः कृतोऽक्षसूत्रप्रणयी तया करः ।।१३।। (धर्मान्तर-परिवर्तन का उदाहरण जैसे )
उस ( पार्वती ) ने रक्तिमा का परित्याग कर देने वाले अधर से तथा स्तनों के अङ्गराग ( लेपन द्रव्य ) से लाल हो गये गेंद से हटाये गये हाथ को दर्भाङ्करों के उखाड़ने के कारण परिक्षत हो गई अङ्गुलियों वाला तथा अक्षमाला का सहचर बना दिया ॥ १३९ ॥
अत्र गौर्याः करकमललक्षणो धर्मः परिवर्तितः। यहां पार्वती का करकमल रूप धर्म परिवर्तित कर दिया है।