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________________ १८४ वीतिजीवितम् कचिदेकस्यैव धर्मिणः समुचितस्वसंवेदिधर्मावकाशे धर्मान्तरं परिवर्तते । यथा कहीं एक ही भर्मी के अनुरूप एवं अपने द्वारा अनुभव किए जाने वाले धर्म के हट जाने पर दूसरा धर्म परिवर्तित हो जाता है । जैसे धृतं त्वया वार्द्धकशोभि वल्कलम् ॥ १४० ।। ( युवावस्था में ही क्यों ) तुमने वृद्धावस्था में सुन्दर लगने वाले वल्कल को धारण कर लिया है ॥ १४० ॥ क्वचिद् बहूनामपि धर्मिणां परस्परस्पर्धिनां पूर्वोक्ताः सर्व विपरि. वर्तन्ते । तथा च लक्षणकारेणात्रैवोदाहरणं दर्शितम् यथा कही परिस्पर्धा करने वाले बहुत से भी धर्मियों पूर्वोक्त ( धर्म विषय आदि) सभी परिवर्तित हो जाते हैं। जैसा कि लक्षणकार ( दण्डी) ने इस विषय में उदाहरण प्रदर्शित किया है, जैसे शस्त्रप्रहारं ददता भुजेन तव भूभुजाम् । चिराजितं हृतं तेषां यशः कुमुदपाण्डुरम् ।। १४१ ॥ ( कोई राजा की प्रशंसा करते हुए कहता है कि हे राजन् ) शस्त्र प्रहार देने वाली ( करने वाली ) तुम्हारी बाहु ने उन राजाओं के चिरकाल से अजित उज्ज्वल कमल के समान उज्ज्वल कीर्ति का अपहरण कर लिया ॥ १४१ ॥ इस प्रसङ्ग में कुन्तक 'रघुवंश' से अधोलिखित श्लोक को उद्धृत करते हैं निर्दिष्ठां कुलपतिना स पर्णशालामध्यास्य प्रयतपरिग्रह द्वितीयः । तच्छिष्याध्ययननिवेदितावसानां संविष्टः कुशशयने निशां निनाय || कुलपति वशिष्ट द्वारा निर्दिष्ट की गई पर्णशाला में स्थित होकर केवल अपनी पत्नी के साथ कुशों की शय्या पर सोते हुए उस ( राजा दिलीप ) ने उन ( वशिष्ठ ) के शिष्यों के अध्ययन से सूचित की गई समाप्ति वाली रात्रि को व्यतीत किया ॥ १४२ ॥ इसका विवेचन करते हुए कुन्तक कहते हैं कि यहां परिवर्तनीय पदार्थान्तर प्रतीयमान है। इसके अनन्तर कुन्तक ने अत्यन्त महत्त्वपूर्ण श्लेष अलङ्कार का विवेचन प्रस्तुत किया है किन्तु पाण्डुलिपि इस स्थल पर बहुत ही भ्रष्ट, अपूर्ण एवं पूर्णतया अस्पष्ट है जिससे कि न तो उसे उद्धृत ही किया जा सकता है और न उसका अधूरा दुर्बोध ही वर्णन प्रस्तुत किया जा सकता है। जैसा डा. हे ने सङ्केत किया है
SR No.009709
Book TitleVakrokti Jivitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRadhyshyam Mishr
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages522
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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