SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 443
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पक्रातिपवितम् इसके बाद प्रातःकालिक सुन्दर सूर्यमण्डल के समान महर्षि ( व्यास ) के मुख से निकलकर आग के स्फुलिङ्गों के सदृश उज्ज्वल ( ऐन्द्रमन्त्ररूप ) विद्या सूर्य किरण की भाँति विकसित होते हुए कमल के सदृश अर्जुन के मुख में प्रविष्ट हो गई ॥ १३६ ॥ ___ इस प्रकार निदर्शन अलंकार का विवेचन समाप्त कर कुन्तक परिवृत्ति अलंकार का विवेचन करते हैं। वे परिवृत्ति अलंकार को भी उपमा का ही एक प्रकार समझते हैं। क्योंकि इस अलंकार में दो पदार्थों में से प्रत्येक का प्रधान रूप से वर्णन किया जाता है तथा सादृश्य प्रतीति स्पष्ट रहती है । अतः उपमा ही स्वीकार करना उचित होगा वे विवेचन प्रारम्भ करते हैं परिवृत्तिरप्यनेन न्यायेन पृथङ्नास्तीति निरूप्यते । परिवृत्ति ( अलङ्कार ) भी इसी प्रकार अलग ( स्वतन्त्र ) नहीं हो सकती इसका निरूपण करते हैं विनिवर्तनमेकस्य यत्तदन्यस्य वर्तनम् । न परिवर्तमानत्वादुभयोरत्र पूर्ववत् ॥ ३२ ॥ जो एक का हटाना तथा उससे भिन्न का प्रयोग करना ( रूप परिवृत्ति ) है दोनों के ही परिवर्तमान होने के कारण (मुख्य रूप से प्रतिपादित होने के कारण) यहाँ भी पहले की ही भांति ( अलङ्कारत्व नहीं हो सकता) ॥ ३२ ॥ तदेवं परिवृत्तेरलङ्करणत्वमयुक्तमित्याह-विनिवर्तनमित्यादि । यद्रेकस्य पदार्थस्य विनिवर्तनम् अपसारणं तदन्यस्य तद्व्यतिरिक्तस्य परस्य वर्तनं तदुपनिबन्धनम् । तदलङ्करणं न भवति । कस्मात्-उभयोः परिवर्तमानत्वात् मुख्येनाभिधीयमानत्वात् । कथम-पूर्ववत्, यथापूर्वम् । प्रत्येकं प्राधान्यान्नियमानिश्चितेश्च न कचित्कस्यचिदलङ्करणम् । तद्वदिहापि न च तावन्मात्ररूपतया तयोः परस्परविभूषणभावः प्राधान्ये निर्वर्तनप्रसङ्गात् । रूपान्तरनिरोधेषु पुनः साम्यसद्भावे भवत्युपमिति. रेषा चालकृतिः समुचिता । उपमा पूर्ववदेव । ___ तो इस प्रकार 'परिवृत्ति' की अलङ्कारता भी उचित नहीं है इसी बात को अन्धकार कहता है-विनिवर्तनमित्यादि (कारिका के द्वारा)। जो एक पदार्थ का विनिवर्तन अर्थात् हटाना ( अपसारण ) तथा उससे भिन्न दूसरे का वर्तन अर्थात् उसका प्रयोग है । वह अलङ्कार नहीं होता। किस कारण से दोनों के परि. वर्तमान होने के कारण मुख्य रूप से प्रतिपाद्य होने के कारण। कैसे-पहले की
SR No.009709
Book TitleVakrokti Jivitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRadhyshyam Mishr
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages522
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy