________________
तृतीयाम्मेवः
२८१ प्रस्पन्दमानपरुषतरतारमन्त
श्वक्षुस्तव प्रचलितभ्रमरं च पद्मम् ।। १३२ ॥ अथवा जैसे-उस ( लक्ष्मी के परिग्रहण ) से मनोहर तथा साथ ही उन्मीलित होने के कारण, भीतर स्फुरित होती हुई स्निग्ध कनीनिका वाले तुम्हारे नेत्र तथा चन्चल भ्रमरों वाले कमल दोनों ही एक दूसरे के सादृश्य को प्राप्त करें। ( अतः आँखें खोले) ॥ १३२ ॥
इसके बाद एक अन्य श्लोक भी उद्धृत है जो कि पढ़ा नहीं जा सका उसकी आदि की पङ्क्तियाँ हैं
हेलावभग्नहरकार्मुक एष सोऽपि ॥ इत्यादि इसके बाद जैसा कि मैंने ऊपर संकेत किया है डा० डे ने बीच में परिवृत्ति अलंकार का विवेचन देकर आगे पुनः भामहकृत निदर्शन के लक्षण एवं उदाहरण को प्रस्तुत किया है। उस उदाहरण एवं लक्षण के प्रसङ्ग को हम इसी अवसर पर उद्धृत कर देते हैं । वह इस प्रकार है
क्रिययैव विशिष्टस्य तदर्थस्योपदर्शनात् ।
ज्ञेया निदर्शना नाम यथेववतिभिर्विना ॥ १३३ ॥ यथा, इव और वति आदि के बिना जहाँ पर क्रिया के द्वारा ही उस विशिष्ट अर्थ का निदर्शन कराया जाता है उसे निदर्शना कहते हैं । १३३ ।।
अयं मन्दातिर्भास्वानस्तं प्रति यियासति ।
उदयः पतनायेति श्रीमतो बोधयन्नरान् ॥ १३४ ॥ समृद्धिशाली लोगों को यह समझाता हुआ कि उदय पतन की ओर ले जाता है, फीकी आभा वाला यह सूर्य, अस्ताचल की ओर जा रहा है ॥ १३४ ॥
इसी प्रसंग में कुन्तक ने 'रघुवंश' के दो श्लोक उद्धृत किए हैं जो इस प्रकार हैं।
ततः प्रतस्थे कौबेरी भास्वानिव रघुर्दिशम् ।
शरैरुरिवोदीच्यादुद्धरिष्यन् रसानिव || १३५ ।। इसके अनन्तर राजा रघु ने किरणों के समान बाणों से जलों के सदृश उदीच्य राजाओं को उन्मूलित (या शोषित ) करने की इच्छा से सूर्य की भांति कुबेर सम्बन्धी ( उत्तर ) दिशा की ओर प्रस्थान किया ॥ १३५ ॥
निर्याय विद्याथ दिनादिरम्याद्विम्बादिवास्य मुखान्महर्षेः । पार्थाननं वहिकणावदाता दीप्तिः स्फुरत्पद्ममिवाभिपेदे ।।१३६॥