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तृतीयोन्मेषः एवं निश्चिनुते मनस्तव मुखं सौन्दर्यसारावधि ।
बध्नाति व्यवसायमेतुमुपमोत्कर्ष स्वकान्त्या स्वयम् ।। १२७ ॥ ( अनन्वय का उदाहरण जैसे-)
उसका पहले अनुभव हो जाने पर चन्द्र आदि बहुत ही छोटी-छोटी चीजें मालूम पड़ती हैं। उसके मुख के उपमान कमल से ( भी) आनन्दग्रहण करने के लिए गया हुआ चित्त एकदम लौट आता है । इस तरह मेरा मन यह निश्चय करता है कि तुम्हारा रमणीयता के सार की सीमा रूप मुख अपनी उपमा के उत्कर्ष को अपनी ही कान्ति से सन्तुलनीय निश्चित करने के लिए स्वयं सिद्ध हो जाता है ॥ १२७ ॥
तदेवमभिधावैचित्र्यप्रकाराणामेवंविधं वैश्वरूप्यम् , न पुनर्लक्षणभेदानाम् ।
[इसके विषय में कुन्तक कहते हैं कि] तो इस प्रकार उक्तिवैचित्र्य के प्रकारों की असंख्यरूपता की यह ( वैश्वख्यता ) है न कि लक्षण के प्रकारों की।
इसके बाद कुन्तक भामह के अनन्वय के लक्षण और उदाहरण को प्रस्तुत करते हैं जो इस प्रकार हैं
यत्र तेनैव तस्य स्यादुपमानोपमेयता ।
असादृश्यविवक्षातस्तमित्याहुरनन्वयम् ॥ १२८ ।। जहाँ ( किसी के ) सादृश्य के अभाव का प्रतिपादन करने की इच्छा से उसकी उसी के साथ उपमानता एवं उपमेयता ( दोनों) होती है उसे विद्वानों ने अनन्वय ( अलङ्कार ) कहा है ॥ १२८ ॥
ताम्बूलरागवलयं स्फुरद्दशनदीधिति ।
इन्दीवराभनयनं तदेव वदनं तव ॥ १२६ ।। जैसे
पान की ललाई के मण्डल वाला, एवं चमकते हुए दांतों की किरणों वाला तथा कमल के समान नवनों वाला तुम्हारा मुख तुम्हारे (मुख) के ही सदृश है।
इस प्रकार भामह के अनन्वय के लक्षण और उदाहरण को उद्धृत कर कुन्तक ने उसकी क्या आलोचना की है। उसका क्या खण्डन प्रस्तुत कर उसे उपमा में अन्तर्भूत किया है। पाण्डुलिपि के अत्यन्त भ्रष्ट होने के कारण पढ़े न जा सकने से उसके विषय में कुछ भी नहीं कहा जा सकता ॥ १२९॥
टिप्पणी-यहां पाण्डुलिपिकी भ्रष्टता के कारण डा० डे ने अपनी Resume में भी पाठको इस प्रकार प्रस्तुत किया है जो कि अत्यन्त प्रामक प्रतीत होता है। पहले