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वक्रोक्तिजीवितम् अथवा जैसे
यदि आकाशगंगा के जल की दोनों धारायें अलग अलग आकाश से गिरें तो उससे तमाल के सदृश नीला एवं लटकते हुए मुक्ताहार वाले इन (कृष्ण) के वक्षस्थल के तुलना की जा सकेगी ॥ १२४ ॥
इसी प्रसङ्ग में कुन्तक भामह के तुल्ययोगिता अलङ्कार के लक्षण तथा उदाहरण को उद्धृत करते हैं जो इस प्रकार है
न्यूनस्यापि विशिष्टेन गुणसाम्यविवक्षया । - तुल्यकार्यक्रियायोगादित्युक्ता तुल्ययोगिता ।। १२५ ॥
गुण की समता को प्रस्तुत करने की इच्छा से तुल्य कार्य और क्रिया के योगवश न्यून का विशिष्ट के साथ जहाँ तुल्यत्व दिखाया जाता है उसे तुल्ययोगिता कहते हैं ॥ १२५ ॥
शेषो हिमगिरिस्त्वं च महान्तो गरवः स्थिराः !
यदलजितमर्यादाश्चलन्ती बिभूथ क्षितिम् ।। १२६ ।। जैसे( कोई किसी राजा की प्रशंसा करते हुए कहता है कि हे राजन् । )
शेषनाग, हिमवान पर्वत तथा तुम, महान् गुरु एवं स्थिर हो जो कि बिना मर्यादा का अतिक्रमण किए इस चलती हुई ( अस्थिर ) पृथ्वी को धारण कर रहे हो ॥ १२६ ॥
___ उक्तलक्षणे तावदुपमान्तर्भावस्तुल्ययोगितायाः। [ कुन्तक का कथन है कि ] उक्त लक्षण के आधार पर तो तुल्ययोगिता का उपमा में ही अन्तर्भाव हो जाता है ।
इसी प्रकार कुन्तक 'अनन्वय' अलङ्कार को भी अलग मानने के लिये तैयार नहीं। उनका कथन है कि अनन्वय में केवल उपमान ही तो काल्पनिक होता है। किन्तु सारी बातें तो उपमा की ही होती हैं । अतः कथन के विभिन्न प्रकार हो सकते हैं, पर लक्षण के विभिन्न प्रकार करना ठीक नहीं। इस लिए अनन्वय में भी उपमा का ही लक्षण पटित होने से उसे उपमा ही समझना चाहिए । अनन्वय का उदाहरण जो कुन्तक ने दिया है वह इस प्रकार है( अनन्वयोदाहरणं यथा)
तत्पूर्वानुभवे भवन्ति लघवो भावा शशाङ्कादयस्तद्वक्त्रोपमितेः परं परिणमे तो रसायाम्बुजात् ।