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तृतीयोन्मेषः तो इस प्रकार प्रतिवस्तूपमा ( अलङ्कार ) का प्रतीयमानोपमा में अन्तर्भाव सङ्गत हो जानेपर अब ( ग्रन्थकार ) उपमेयोपमा आदि का उपमा में अन्तर्भाव करने का विवेचन करते हैं
सामान्या, न व्यतिरिक्ता, लक्षणानन्यथास्थितेः ॥ ३१ ॥ ( उपमेयोपमा) सामान्य ( उपमा ही ) है, उससे भिन्न नहीं, लक्षण की अतिरिक्त रूप में स्थिति ( सम्भक ) न होने के कारण ॥ ३१ ॥
तत्स्वरूपाभिधानं लक्षणं, तस्यानन्यथास्थितेः अतिरिक्तभावेन नावस्थानात् ।
उसके स्वरूप का प्रतिपादन लक्षण होता है । उस लक्षण की अन्यथा स्थिति न होने से अर्थात् अतिरिक्त रूप से स्थिति न होने के कारण ( उपमेयोपमा सामान्य उपमा ही है उससे भिन्न नहीं) ( क्योंकि यहाँ केवल उपमान उपमेय बन जाता है और उपमेय उपमान ।)
इसके अनन्तर कुन्तक तुल्ययोगिता अलवार को भी उपमा में ही अन्तर्भूत करते हैं । वे कहते हैं कि तुल्ययोगिता भी स्पष्ट रूप से उपमा हो जाती है
सा भवत्युपमितिः स्फुटम् ।। क्यों कि दो पदार्थों में समानता का आधिक्य ही तो रहता है जिनमें से हर एक मुख्य रूप से वर्णनीय पदार्थ होता है। अतः उपमा का लक्षण इसमें पूर्णतया घरित हो जाता है। इसलिए इसे उससे अलग अलङ्कार स्वीकार करना उचित नहीं । तुल्ययोगिता के उदाहरण रूप में कुन्तक अधोलिखित श्लोकों को उधृत करते हैं
(तुल्ययोगिताया उदाहरणे) जनस्य साकेतनिवासिनस्तौ द्वावप्यभूतामभिनन्धसत्त्वौ। गुरुप्रदेयाधिकनिस्पृहोऽर्थी नृपोऽथिंकामादधिकप्रदश्च ।।१२३।।
गुरु के दातव्य से अतिरिक्त ( धन ) के प्रति अनिच्छुक याचक ( कौत्स ) तथा याचक के मनोरथ से अधिक प्रदान करने वाले राजा ( रघु) वे दोनों ही अयोध्यावासी लोगों के लिए प्रशंसनीय प्राणी हो गए ( अथवा स्तुत्य व्यापार वाले सिद्ध हुये ) ॥ १२३ ॥
(यथा च) उभौ यदि व्योम्नि पृथकप्रवाहावाकाशगङ्गा पयसः पतेताम् । तेनोपमीयेत तमालनीलमामुक्तमुक्तालतमस्य वक्षः ॥१२४॥