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वक्रोक्तिजीवितम् ___ समानवस्तुन्यासोपनिबन्धना प्रतिवस्तूपमापि न पृथग वक्तव्यतामर्हति, पूर्वोदाहरणेनैव समानयोगक्षेमत्वात् ।
[ भामह के अनुसार ] समान वस्तु विन्यास के हेतु वाली प्रतिवस्तूपमा भी अलग ( स्वतन्त्र अलङ्कार रूप से ) कही जाने योग्य नहीं है। पूर्व उदाहरण के समान ही योगक्षेम वाली होने के कारण।
समानवस्तुन्यासेन प्रतिवस्तूपमोच्यते ।
यथेवानमिधानेऽपि गुणसाम्यप्रतीतितः ।। १२० ।। समान वस्तु के विन्यास के द्वारा गुणों के सादृश्य की प्रतीति होने के कारण, 'यथा' तथा 'इव' का कथन न होने पर भी प्रतिवस्तुपमा ( अलङ्कार) कहा जाता है ॥ १२० ॥
साधु साधारणत्वादिर्गुणोऽत्र व्यतिरिच्यते ।
स साम्यमापादयति विरोधेऽपि तयोर्यथा ॥ १२१ ।। यहाँ ( उपमान तथा उपमेय के ) साधुत्व एवं साधारणत्वादि गुण भिन्न होते हैं, तथा उन दोनों का विरोध होने पर भी वह ( प्रतिवस्तूपमा अलङ्कार) समानता की प्रतीति कराता है। जैसे
कियन्तः सन्ति गुणिनः साधुसाधारणश्रियः ।
स्वादुपाकफलानम्राः कियन्ता वाध्वशाखिनः ।। १२२ ॥ साधुओं में सामान्य रूप से पाई जाने वाली श्री वाले कितने गुणी लोग हैं ?
अथवा स्वादिष्ट पके हुए फलों से झुके हुए मार्ग में स्थित वृक्ष कितने हैं ?अर्थात् बहुत कम हैं ॥ १२२ ॥
अत्र समानविलसितानामुभयेषामपि कविविवक्षितविरलत्वलक्षणसाम्यव्यतिरेकि न किञ्चिदन्यन्मनोहारि जीवितमतिरच्यमानमुपलभ्यते ।
[इसके विषय में कुन्तक का कहना है कि यहाँ समान सौन्दर्य वाले (गुगियों तथा वृक्षों) दोनों का हो, कवि के वर्णन के लिये अभिप्रेत 'विरलता' रूप सादृश्य से भिन्न कोई दूसरा मनोहर एवं उत्कर्षयुक्त तत्त्व नहीं दिखाई पड़ता है ।
इसके अनन्तर कुन्तक उसी प्रकार 'उपमेयोपमा' तथा 'तुल्ययोगिता' के भी बलग अङ्कार नहीं स्वीकार करते। अपि तु उनका भी अन्तर्भाव उपमा में ही
यामन्तर्भावोपपत्तौ सत्या.