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तृतीयोन्मषः मानिष्ठीकृतपट्टसूत्रसदृशः पादानयं पुञ्जयन् यात्यस्ताचलचुम्बिनी परिणति स्वरं ग्रगामणीः। .. वात्यावेगविवर्तिताम्बुजरजश्छत्रायमाणः क्षणं
क्षीणज्योतिरितोऽप्ययं स भगवानोंनिधौ मजति ॥ ११७ ।। मंजीठ के रंग के बना दिए गए हुए पट्ट सूत्र के सदृश अपनी किरणों को बटोरता हुआ ग्रहों के समूह का नायक ( सूर्य ) अस्तगिरि का स्पर्श करने वाली परिवृत्ति को स्वेच्छया प्राप्त कर रहा है। बवण्डर के वेग से घुमाए गए कमल के पराग के द्वारा क्षण भर को छत्र सा धारण करते हुए क्षीणज्योति होकर यह वे भगवान सूर्य सागर में दुबे जा रहे हैं ॥ ११७ ।।
रामेण मुग्धमनसा वृषलाञ्छनस्य , यजर्जरं धनुरभाजि मृणालभाम् ।
तेनाऽमुना त्रिजगदर्पितकीर्तिभारो • रक्षःपतिर्ननु मनाङ्न विडम्बितोऽभूत् ॥ ११ ॥ भोले चित्त वाले राम ने वृषभकेतन शिव के जर्जर धनुष को जो मृणाल तोड़ने के तुल्य ( अनायास ) तोड़ डाला उसकी वजह से तीनों लोकों में अपनी कीति के बोझ को समर्पित करने वाला राक्षसराज रावण इन राम के द्वारा क्या थोड़ा भी कर्थित नहीं हुआ ? ॥ ११८ ॥
महीभृतः पुत्रवतोऽपि दृष्टिस्तस्मिन्नपत्ये न जगाम तृप्तीम् ।
अनन्तपुष्पस्य मधोहि चूते द्विरेफमाला सविशेषसङ्गा ।।११।। अनेक पुत्रों तथा पुत्रियों वाले उस पर्वत (हिमालय ) की भी दृष्टि उस सन्तान ( पार्वती ) में तृप्त नहीं हुई ( अर्थात् हिमालय की दृष्टि हमेशा उसी पर लगी रहती थी ) जैसे कि असङ्ख्य फूलों वाले वसन्त की भ्रमरपङ्क्ति आम्र. मन्जरियों में विशेष रूप से आसक्त रहती है ॥ ११९ ॥
ऊपर के उद्धरणों में अन्तिम उद्धरण 'महीभृतः इत्यादि' में कुन्तक अर्थान्तरन्यास की भ्रान्ति को स्वीकार करते हैं । इसके बाद दो अन्य श्लोक -
इत्याकणितकालनेमिवचनो' आदि ।
तथा इतीदमाकर्ण्य तपस्विकन्या.....'आदि ॥ को भी कुन्तक उद्धृत करते हैं परन्तु पाण्डुलिपि के भ्रष्ट होने के कारण इन्हें पूर्णरूपेण उद्धृत कर पाना कठिन था। इसी लिए इन श्लोकों को मैंने नहीं उद्धृत किया। - इसके बाद कुन्तक इस प्रश्न पर विचार करते हैं कि क्या 'प्रतिवस्तूपमा मलङ्कार' को अलग से एक अलङ्कार स्वीकार करना आवश्यक है अथवा उपमा में ही उसका अन्तर्भाव हो जायगा। कहते हैं