________________
३७०
वक्रोक्तिजीवितम् रूपमित्युच्यते। किमर्थमप्रस्तुतेन साम्यमित्याह-विवक्षितपरिस्पन्द. मनोहारित्वसिद्धये । विवक्षितो वक्तमभिप्रेतो योऽसौ परिस्पन्दः कश्चिदेव धर्मविशेषस्तस्य मनोहारित्वं हृदयरञ्जकत्वं तस्य सिद्धिनिष्पत्तिस्तद. र्थम् । कीदृशेन पदार्थान्तरेण तदुत्कर्षवता। तदिति मनोहारित्वं - परामृश्यते । तस्योत्कर्ष सातिशयत्वं नाम तदुत्कर्षः, स विद्यते यस्य स तथोक्तस्तेन तदुत्कर्षवता। ___ तदिदमत्र तात्पर्यम्-वर्णनीयस्य विवक्षितधर्मसौन्दयसिद्धयर्थ प्रस्तुतपदार्थस्य धर्मिणो वा साम्यं युक्तियुक्ततामर्हति । धर्मेणेति नोक्तं केवलस्य तस्यासम्भवात् । तदेवमयं धर्मद्वारको धर्मिणोरुपमानोपमेय. लक्षणयोः फलतः साम्यसमुच्चयः पर्यवस्यति ।... . ___ अब सादृश्य के कारण प्रकाशित होने वाले अलङ्कारसमुदाय के वर्णनसौन्दर्य का (ग्रन्थकार ) विवेचन करता है-विवक्षित-इत्यादि कारिका के द्वारा । जहाँ अर्थात् जिसमें प्रकरण द्वारा अधिकृत वस्तु का किसी दूसरे अप्रस्तुत पदार्थ से साम्य अर्थात् सादृश्य होता है वह उपमा होती है, (विद्वान् ) उसे उपमा रूप अलङ्कार कहते हैं। अप्रस्तुत के साथ सादृश्य किस लिए प्रतिपादित किया जाता है, इसे बताते हैं कि विवक्षित धर्म की मनोहारिता की सिद्धि के लिए । विवक्षित अर्थात् वर्णन के लिये अभिप्रेत जो यह परिस्पन्द अर्थात् कोई धर्मविशेष उसका जो मनोहारित्व अर्थात् हृदय को आनन्दित करने का भाव उसकी सिद्धि अर्थात् निष्पत्ति ( अथवा प्रतीति ) के लिए ( अप्रस्तुत के साथ साम्य प्रतिपादित किया जाता है ) । कैसे दूसरे पदार्थ के साथ-उसके उत्कर्ष से युक्त ( पदार्थ के साथ)। 'उस' से यहाँ मनोहारिता का परामर्श होता है। उस (मनोहारिता) का उत्कर्ष अर्थात् सातिशयता उसका उत्कर्ष है, वह (उत्कर्ष) जिसमें विद्यमान हो उसे उस उत्कर्ष से युक्त कहा जायगा । उसी उत्कर्ष युक्त अन्य पदार्थ के द्वारा ( साम्य प्रतिपादित किया जाता है)।
तो यहाँ इसका आशय यह है कि-वर्णनीय ( पदार्थ ) के विवक्षित धर्म के सोन्दर्य की सिद्धि के लिये वर्णनीय पदार्थ का अथवा धर्मी का सादृश्य युक्तिसङ्गत होता है। धर्म के साथ ( साम्य ) नहीं कहा गया है क्योंकि (विना धर्मी) के अकेले धर्म की स्थिति असम्भव होती है। तो इस प्रकार परिणामरूप में यह ( सादृश्य का समाहार ) धर्म के द्वारा उपमान एवं उपमेय रूप धर्मियों में पर्यवसित होता है।
एवंविधामुपमां कः प्रतिपादयतीत्याह-क्रियापदमित्यादि । क्रियापदं धात्वर्थः । वाच्यवाचकसामान्यमात्रमत्राभिप्रेतम् न पुनराख्यातपदमेव । यस्मादमुख्यभावेनापि यत्र क्रिया वर्तते तदप्युपमावाचकमेव |...