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________________ तृतीयोन्मेकः ३६९ अथवा जैसे जिसके प्रतापरूपी सूर्य के ऊपर बढ़ जाने पर अन्य तेजस्वियों की चर्चा ही व्यर्थ है और जिसके यश रूपी चन्द्रबिम्ब के समुच्छ्रित होने पर लोक में प्रकापा धारण करने वालों के निम्नवर्ती होने के विषय में अत्यधिक चर्चा होने लगती है। त्रैलोक्य में विख्यात बल की महिमा वाले राजाओं के वंश के मूल भूत सूर्य और चन्द्रमा स्वयं कुशलता के लिए ( जिसकी ) छाया का आश्रयण कर लेते हैं। इसके अनन्तर कुन्तक विस्तारपूर्वक उपमा अलङ्कार का विवेचन प्रारम्भ करते हैं। परन्तु जैसा कि डा० डे ने लिखा है इस स्थल पर पाण्डुलिपि अत्यन्त भष्ट है । अतः इसके विवेचन को पूर्ण रूप से सही सही प्रस्तुत कर सकना कठिन हो गया है। प्रयास करके जैसा डा० डे ने मूल दे रखा है उसे ही उदृत कर उसका अर्थ यहाँ प्रस्तुत किया जा रहा है । उपमा का लक्षण हैं विवक्षितपरिस्पन्दमनोहारित्वसिद्धये । वस्तुनः केनचित्साम्यं तदुत्कर्षवतोपमा ॥ २८ ॥ पदार्थ के वर्णन के लिए अभिप्रेत, किसी धर्म की हृदयावर्जकता की निष्पत्ति के लिए उसके अतिशय से सम्पन्न किसी पदार्थ के साथ ( उसका ) सादृश्य उपमा होता है ॥ २८ ॥ तां साधारणधर्मोक्तौ वाक्यार्थे वा तदन्वयात । इवादिरपि विच्छित्या यत्र वक्ति क्रियापदम् ॥ २९ ॥ उस उपमा को साधारण धर्म का कथन होने पर इव आदि शब्द अथवा वाक्यार्थ में उन ( पदार्थों ) का सम्बन्ध होने के कारण क्रियापद भी वैदग्ध्यपूर्ण ढङ्ग से प्रतिपादित करते हैं ॥ २९ ॥ इदानीं साम्यसमुद्भासिनो विभूषणवर्गस्य विन्यासविच्छित्ति विचारयति--विवक्षितेत्यादि । यत्र यस्यां वस्तुनः प्रस्तावाधिकृतस्य केनचिदप्रस्तुतेन पदार्थान्तरेण साम्यं सादृश्यं सोपमा उपमालकृति. १. यदि इस कारिका को इस रूप में रखा जाय तो शायद अधिकसमीचीन होगा क्रियापदं विच्छित्या यत्र वक्ति इवादिरपि । तां साधारणधर्मोक्तौ वाक्यार्थे वा तदन्वयात् ॥ क्योंकि वृत्ति में जैसा कि डा. डे ने दे रखा है-एवंविधामुपमा कः प्रतिपादयतीत्याह-क्रियापदमित्यादि । इससे स्पष्ट है कि द्वितीय' कारिका का प्रारम्भ क्रियापदम्' से ही होता है। २४ घ० जी०
SR No.009709
Book TitleVakrokti Jivitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRadhyshyam Mishr
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages522
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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