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वक्रोक्तिजीवितम् (धर्मों का अतिशय ) । क्योंकि सहृदयों को आनन्दित करने वाले अपने स्वभाव से सुन्दर होना ही तो काव्य का अर्थ होता है। इसी लिए उस अतिशय को परिपुष्ट करने वाली अतिशयोक्ति के प्रति आलङ्कारिकों ने समादर प्रदान किया है।
इसके बाद कुन्तक ने अतिशयोक्ति के पांच उदाहरण देकर उनकी व्याख्या प्रस्तुत की है। पर पाण्डुलिपि के भ्रष्ट होने के कारण व्याख्या तो पढ़ी ही नहीं जा सकी। श्लोक भी केवल तीन ही पढ़े जा सके हैं जो इस प्रकार हैं
स्वपुष्पच्छविहारिण्या चन्द्रभासा तिरोहिताः ।
अन्वमीयन्त भृङ्गालिवाचा सप्तच्छदद्रुमाः ।। १०६ ।। अपने ही फूलों की कान्ति का अपहरण कर लेने वाली चन्द्रमा को प्रभा से छिप गए हुए सप्तपर्ण के वृक्षों का भ्रमरों की ध्वनि से अनुमान किया गया। ( यथा वा)
शक्यमोषधिपतेर्नवोदयाः कर्णपूररचनाकृते तव |
अप्रगल्भयवसूचिकोमलाश्छेत्तममनखसम्पुटैः कराः ।। १०७ ॥ अथवा जैसे
नये-नये उदयवाली, अकठोर जी के अङ्कुर की तरह सुकुमार, ओषधिपति ( चन्द्रमा ) की किरणें तुम्हारे कर्णावतंस की निर्माणक्रिया के लिए नाखूनों के अग्रभाग से काटी जा सकने योग्य है। (यथा वा)
यस्य प्रोच्छयति प्रतापतपने तेजस्विनामित्यलं ___ लोकालोकधराधरावति यशःशीतांशुबिम्बे प्रथा। त्रैलोक्यप्रथितावदानमहिमक्षोणीशवंशोद्भवौ
सूर्याचन्द्रमसौ स्वयं तु कुशलच्छायां समारोहतः ।। १०८ ॥
१.डा. हे ने वक्रोक्ति जीवित में 'स्वपुष्पच्छविहारिण्यश्चन्द्रहासा' पाठ दे रखा है जो असमीचीन है। जैसा पाठ मैंने दिया है वही पाठ भामह के कान्यालार ( २१८२) बालमनोरमा सीरीज न० ५४ में दिया हुआ है।
२. ठा० डे के तृतीय संस्करण में 'भृङ्गालीवाचा' पाठ छपा है । सम्भवतः यह क में दोर्ष ईकार छापने वालों के प्रमादवश छप गया है, उसे मैने भूनासिवाचा कर दिया है।