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वक्रोक्तिजीवितम्
महिमोचितम् | तस्य पदार्थस्य यः स्वस्पन्दमहिमा स्वभावोत्कर्षस्तस्योचितमनुरूपम् । कस्मात् — बोद्धुरनुभवितुस्तथा तेन प्रकारेण प्रतिभासादवबोधात् । 'निर्वर्ण्यातिशयोद्रेकप्रतिपादनवाव्छ्या' 'तदिवेति तदेवेति वादिभिर्वाचकं विना' इति पूर्ववदिहापि सम्बन्धनीये । उदाहरणं यथा
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तो यह उत्प्रेक्षा का दूसरा भेद दिखाई पड़ता है - 'प्रतिभासात्' इत्यादि ( कारिका के द्वारा उसका स्वरूपनिरूपण करते हैं । साध्य रूप क्रिया के प्रति - कर्तृत्व का आरोप अर्थात् स्वतन्त्रता का समारोपण ( उत्प्रेक्षा होती है) । किसकी ( कर्तृता का आरोप ) निष्क्रिय वस्तु अर्थात् क्रिया से हीन पदार्थ की ( कर्तृता का आरोप ) । कैसा ( कर्तृता का आरोप ) — अपने स्वभाव की महिमा के अनुरूप । उस पदार्थ की जो अपने स्पन्द की महिमा अर्थात् स्वभाव का अतिशय उसके प्रति उचित अर्थात् योग्य ( कर्तृता का आरोप ) । किस कारण से ( ऐसा आरोप किया जाता है ) बोद्धा अर्थात् अनुभव करने वाले की उसी प्रकार से प्रतीति अर्थात् ज्ञान होने के कारण ( आरोप किया जाता है, और यह आरोप ) 'वर्ण्यमान पदार्थ के अतिशय के बाहुल्य का प्रतिपादन करने की इच्छा से' एवं उस ( अप्रस्तुत ) के समान, इस अर्थ में या 'वह ( अप्रस्तुत ) ही' इस अर्थ में वा आदि तथा वाचक के विना ( किया जाता है ) ऐसा पहले की ही भाँति यहाँ भी सम्बन्ध जोड़ लेना चाहिए। उदाहरण जैसे
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लिम्पतीव तमोऽङ्गानि वर्षतीवाञ्जनं नभः ॥ १०३ ॥
यथा वा
तरन्तीवाङ्गानि स्खलदमललावण्यजलधौ ॥ १०४ ॥ अत्र दण्डिना विहितमिति न पुनर्विधीयते ।
अन्धार अङ्गों को लीप सा रहा है तथा आकाश कज्जल सा बरसा रहा है। अथवा जैसे - ( उदाहरण संख्या २।९१ पर पूर्वोदाहृत )
तरन्तीवाङ्गानि स्खलदमललावण्यजलधी || आदि श्लोक )
यहाँ पर ( अर्थात् ऐसे स्थलों पर ) दण्डी ने ( उत्प्रेक्षा का विधान ) कर दिया है अतः पुनः विधान नहीं किया जा रहा है ।
इसके अनन्तर कुन्तक एक तीसरा भी उदाहरण प्रस्तुत करते हैं जो पाण्डुलिपि के अत्यन्त भ्रष्ट होने के कारण पढ़ा नहीं जा सका। उसके बाद - उत्प्रेक्षा के इस प्रकार के विषय में कुन्तक इस बात का निरूपण करते हैं कि
अपहृत्याम्यालङ्कारलावण्यातिशयश्रियः
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उत्प्रेक्षा प्रथमोल्लेखजीवितत्वेम जन्मते ।। १०५ ।।
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