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तृतीयोन्मेषः
तदेवेत्यत्र वादिभिविनोदाहरणम्, यथाचन्दनासक्तभुजगनिःश्वासानिलमूच्छितः । मूर्च्छत्येष पथिकान् मधौ मलयमारुतः ॥ ६६ ॥ 'वह (अप्रस्तुत) ही' इस अर्थ वा आदि के विना उत्प्रेक्षा का उदाहरण जैसे— ( मानो ) चन्दन ( के पेड़ ) में लिपटे हुए सर्पों की निःश्वासवायु से पूच्छित हुआ ( ही ) यह मलयपवन वसन्त ऋतु में कर रहा है ॥
राहियों को मूच्छित
यथा वा
देवि त्वन्मुखपङ्कजेन इत्यादि ॥ १०० ॥
यथा वा
त्वं रक्षसा भीरु इत्यादि ।। १०१ ।। अथवा जैसे ( उदाहरण संख्या २।४४ पर पूर्वोदाहृत ) - देवि त्वन्मुखपङ्कजेन । इत्यादि श्लोक |
अथवा जैसे ( उदाहरण संख्या २१८० पर पूर्वोवृत ) त्वं रक्षसा भीरु । इत्यादि श्लोक | तदेवेत्यत्र वाचकं विनोदाहरणम् यथाएकैकं दलमुन्नमय्य इत्यादि ॥ १०२ ॥
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'वह (अप्रस्तुत ही ) इस अर्थ में वाचक के विना उत्प्रेक्षा का उदाहरण जैसे( उदाहरण संख्या १।१०२ पर पूर्वोवृत 'यत्सेना रजसामुदञ्चति इत्यादि' लोक का उत्तरार्द्ध)
एकैकं दलमुन्नमय्य । इत्यादि श्लोक |
इसके बाद ग्रन्थकार उत्प्रेक्षा के एक अन्य प्रकार को प्रस्तुत करता है जो इस प्रकार है
क्रियाहीन भी पदार्थों की क्रिया के की प्रतीति होने से अपने स्वभाव के ( उत्प्रेक्षा अलङ्कार होता है ) ।। २६ ।।
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प्रतिभासात्तथा बोद्धुः स्वस्पन्दमहिमोचितम् । वस्तुनो निष्क्रियस्यापि क्रियायां कर्तृतार्पणम् ॥ २६ ॥
प्रति अनुभव करने वाले को उस प्रकार उत्कर्ष के अनुरूप कर्तृत्व का आरोप
तदिदमपरमुत्प्रेक्षायाः प्रकारं परिदृश्यते - प्रतिभासादित्यादि । क्रियायां साध्यस्वरूपायां कर्तृतारोपण स्वतन्त्रत्वसमारोपणम् । कस्य — वस्तुनः पदार्थस्य निष्क्रियस्य क्रियाविरहितस्यापि । कीदृशम् — स्वस्पन्द