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तृतीयोन्मेषः
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बराबरी को ? जिसका एकमात्र प्राण उपचार है । उपचार अर्थात् तत्व का अध्यारोप ( वह उसका एकमात्र सर्वस्व अर्थात् उसका कारण होने के कारण केवल प्राणभूत होता है क्योंकि उपचारों से ही रूपक की प्रवृत्ति होती है ।
[ यहाँ प्रयुक्त साम्य वस्तुतः प्रतीयमानवृत्ति साम्य की ओर संकेत करता है जैसा कि दीपकालङ्कार के विवेचन में किया गया है । इसीलिए शायद कारिका में तत्साम्यमुद्वहत् करके आया है किन्तु वृत्ति में तत् की कोई व्याख्या ही नहीं उपलब्ध है, अतः कोई निश्चित संकेत ज्ञात नहीं होता। पर जैसा कि डा० डे भी कहते हैं कि इस साम्य को प्रतीयमानवृत्तिसाम्यरूप में ही ग्रहण करना चाहिए, वही उचित प्रतीत होता है । ]
यस्मादुपचारवत्रता जीवितमेतदलङ्करणं प्रथममेव समाख्यातम् - यन्मूला रसोल्लेखा रूपकादिरलङ्कृतिः । ( इति )
एवं च रूपकादि सामान्यलक्षणमुल्लिख्य प्रकारपर्यालोचनेन तमेवोनमीलयति
क्योंकि उपचार वक्रता रूप प्राण वाला यह ( रूपक ) अलङ्कार होता है ऐसा पहले ही ( कारिका २०१४ ) कि -
जिस ( उपचार वक्रता ) के मूल में होने के कारण रूपक आदि अलङ्कार आस्वादपूर्ण अथवा चमत्कार युक्त हो जाते हैं । (प्रतिपादित किया जा चुका है ।) इस प्रकार रूपक आदि के सामान्य लक्षण को बताकर भेदों का विवेचन हुए उसी ( रूपकालङ्कार ) का स्वरूप बताते हैं
करते
समस्त वस्तुविषयमेकदेशविवर्ति च ।
समस्तत्रस्तुविषयो यस्य तत्तथोक्तम् । तदयमत्रार्थः यत् सर्वाण्येव प्राधान्येन वाच्यतया सकलवाक्योपारूढान्यभिघेयान्यलङ्कर्यत या सुन्दरस्वरूप परिस्पन्दसमर्पणेन रूपान्तरापादितानि गोचरो यस्येति । यथा-( वह रूपक ) ( १ ) समस्तवस्तु विषय तथा ( २ ) एकदेशविवर्ति ( दो प्रकार का ) होता है ।
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जिसका विषय समस्त बस्तु होती है वह समस्तवस्तु विषय रूपक होता है । तो यहाँ इसका आशय यह है कि जिस अलङ्कार के विषय समस्त वाक्य के अन्दर सन्निविष्ट सारे के सारे अभिधेय अर्थ अलङ्कार्य के रूप में वाच्यार्थ की प्रधानता के द्वारा उपात्त ( विषयी के ) अपने रमणीय स्वभाव के आरोपण कर देने के कारण एक दूसरे विषय रूप को प्राप्त करा दिये जाते हैं ( वह समस्तवस्तु विषय रूपक होता है ।) जैसे