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तृतीयोन्मेषः
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कुन्तक इसका उत्तर देते हैं
ठीक कहा (तुमने ) तो यह व्याख्या कर रहा हूँ । उन ( प्राचीन ) आचार्यो का अभिप्राय है कि केवल ( वा एक ही ) क्रियापद दीपक होता है, पर हमारा मत है कि कर्तृपदादिकमूलक बहुत से दीपक हो सकते हैं ।
[ इसके बाद कुम्तक इस प्रकरण का अधोलिखित कारिका के साथ उपसंहार करते हैं । इस कारिका जो जिस ढङ्ग से डा० डे ने मुद्रित किया है उसके अनुसार यह प्रतीत होता है कि कुन्तक यहाँ यह बताना चाहते हैं कि 'कैसा क्रियापद दीपक हो सकता है और कैसी वस्तु दीपक हो सकती है - ]
यथायोगि क्रियापदं मनः संवादि तद्विदाम् । वर्णनीयस्य विच्छित्तेः कारणं वस्तुदीपकम् ॥
१८ ॥
इदानीमेतदेवोपसंहरति - यथायोगि क्रियापदमित्यादि । यथा येन प्रकारेण युज्यते इति यथायोगि क्रियापदं यस्य तत्तथोक्तम् । येन यथा सम्बन्धमनुभवितुं शक्नोति तथा दीपके क्रिया । [ अन्यश्च किं रूपम् ? मनःसंवादि तद्विदाम ।] तद्विदां काव्यज्ञानां मनसि संवदति चेतसि प्रतिफलति यत्तत्तथोक्तम् ।
जिस प्रकार से (वाक्यार्थ ) सम्बद्ध हो सके वैसा और सहृदयों का मनोनुकूल क्रियापद ( दीपक होता है ) तथा वर्णनीय पदार्थ की सुन्दरता का कारणभूत वस्तु दीपक होती है ॥
अ ( ग्रन्थकार ) इसी ( दीपक अलङ्कार ) का उपसंहार करते हैं'यथायोगि क्रियापदम्' इत्यादि कारिका के द्वारा । जैसे अर्थात् जिस तरह युक्त होता है वह यथायोगि हुआ इस प्रकार यथायोगि क्रियापद है जिसके वह यथायोगि क्रियापद वाला हुआ। अतः जिस प्रकार से सम्बन्ध का अनुभव किया जा सकता है वैसी दीपक में क्रिया होती है । उस काव्य को जानने या समझने वालों के चित्त में जो संवाद उत्पन्न करती है अर्थात् हृदय में प्रतिफलित होती है वह क्रिया दीपक होती है ।
[ तस्मादेव सहृदयहृदय संवाद माहात्म्यात् - 'मुखमिन्दुः' इत्यादौ न केवलं रूपकमिति यावत् । 'किं तारुण्यतरोः' इत्येवमाद्यपि । तस्मादेव च सूक्ष्ममतिरिक्तं वा न किञ्चिदुपमानात् साम्यं तस्य निमित्तमिति सचेतसः प्रमाणम् ]
[ इसीलिये सहृदय हृदय के साथ संवाद होने पर 'मुख चन्द्र है' ऐसे कथनो में महाविषय होने के नाते केवल रूपक ही नहीं होता। और इसी से 'कि तारुण्य