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________________ तृतीयोन्मेषः ६४७ प्रगल्भता से सुशोभित होती है । वह ( प्रगल्भता ) राजनीति के मार्ग की दोषभाक् है, और वह ( राजनीति का मार्ग ) भी क्रूरतापूर्ण कर्मों से अर्थात् परराष्ट्र पर आक्रमण आदि से सुशोभित होता है यदि इस क्रूरतापूर्ण कर्म को धारण कर लिया जाय तो ( व्यक्तिविशेष ) त्रिभुवन का ही उच्छेद करने पर तुल जाय।।७६॥ टिप्पणी:-[ यहाँ पर डा० डे ने 'च क्रौर्यक्रियालङ्कृतम्' पाठ मुद्रित किया है, तथा उसके अर्थवैषम्य को देखते हुए पादटिप्पणी में उन्होंने 'चेच्छौर्य क्रियालङ्कृतम्' पाठान्तर निर्दिष्ट किया है। स्व. आचार्य विश्वेश्वर जी ने 'च शौर्यक्रियालङ्कृतं' पाठ देते समय 'शार्दूलविक्रीडितवृत्तगत' छन्दोभङ्ग की ओर पता नहीं ध्यान क्यों नहीं दिया। हमने यहाँ पर मातृकागत पाठ को ही श्रेयान् मानकर रूपान्तर प्रस्तुत किया है । इस पक्ष में सात दीपक दृष्टि पथ में आते हैं। पहला है क्षोणीमण्डल और नृपति के बीच । दूसरा नृपति और श्री के बीच। तीसरा श्री और अचापल के बीच । चौथा अचापल और प्रागल्भ्य के बीच । पाँचवाँ प्रागल्भ्य और नयवर्म के बीच । छठा नयवर्त्म और क्रौर्यक्रिया के बीच और अन्तिम क्रौर्यक्रिया और त्रिभुवनच्छेद के बीच है। पहले का धर्म मण्डन, दूसरे का भूषण, तीसरे का शोभागमन, चौथे का राजन, पांचवें का दुष्यत्व, छठे का अलङ्कृतत्त्व और सातवें का विभ्राणत्व है। डा० डे० की आशंका का हेतु ऊपर से चला आता हुआ मण्डनादि और दूष्यत्व के बीच का वैषम्य प्रतीत होता है। परन्तु चतुर्थ चरण का पाठ करने पर स्पष्ट हो जायगा कि कवि का संरम्भ एक ही प्रकार के धर्म के साथ अभिसम्बन्ध दिखाने में नहीं है । अन्तिम बात यह भी ध्यान देने की है कि यहाँ शौर्यक्रिया की बात करना अनुचित है। क्योंकि त्रिभुवन का उच्छेद शौर्यक्रिया से नहीं अपितु क्रौर्यक्रिया से ही सम्भव है। यहाँ पर इन सातों दीपकों में प्रत्येक पहले दीपक का अप्रस्तुत दूसरे दीपक का प्रस्तुत बन जाता है । इसीलिए इसे दीपितदीपक कहा जाता है । ] .. अत्रोत्तरोत्तराणि पूर्वपूर्वपददीपकानि मालायां कविनोपनिबद्धानीति । यथा वा शुचि भूषयति श्रुतं वपुः प्रशमस्तस्य भवत्यलक्रिया । प्रशमाभरणं पराक्रमः स नयापादितसिद्धिभूषणः ।। ७७ ॥ यथा च __ चारुतावपुरभूषयदासाम् ॥ ८ ॥ इत्यादि। यहाँ पर उत्तरोत्तर दीपक उसके पूर्ववर्ती प्रत्येक दीपक के साथ कवि के द्वारा एक माला में गुम्फित किए गए हैं।
SR No.009709
Book TitleVakrokti Jivitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRadhyshyam Mishr
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages522
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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