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वक्रोक्तिजीवितम्
चन्द्रमा की किरणें रात्रि को, कमल कमलिनी को, फूलों के गुच्छे लता को, हंस शरद ऋतु के सौन्दर्य को तथा सज्जन काव्य कथा को महत्वपूर्ण बना देते हैं ॥ ७५ ॥ इसके बाद कुन्तक ने इस पंक्तिसंस्थ दीपक के भी अन्य अन्य प्रभेद किये हैं । किन्तु पाण्डुलिपि में वह स्थल अधिक स्पष्ट नहीं है । कारिका तो पूर्णतः अस्पष्ट है । उसे डा० डे सम्पादित नहीं कर सके । पर उस स्थल को पढ़ने से ऐसा पता चलता है कि कुन्तक ने इस पंक्तिसंस्थ दीपक के पुनः तीन भेद किए हैं। कारिका तो सर्वथा अस्पष्ट ही है । वृत्ति में से जितना स्थल स्पष्ट हो सका है वह इस प्रकार है
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यदपरं पंक्तिसंस्थं नाम " कारणात् त्रिप्रकारम् | त्रयः प्रकाराः प्रभेदा यस्येति विग्रहः । तत्र प्रथमस्तावदनन्तरोक्तो 'भूयांसि भूयसां कचिद्भवन्ति' इति |
द्वितीयो - दीपकं दीपयत्यन्यत्रान्यदिति, अन्यस्यातिशयोत्पादकत्वेन दीपकम् । यद्दीपितं तत्कर्मभूतमन्यत् कर्तृभूतं दीपयति प्रकाशयति तदव्यन्यद्दीपयतीति ।
जो दूसरा 'पंक्तिसंस्थ' नाम का ( दीपकालङ्कार का भेद है वह ) ... ( यहाँ डा० डे ने पाठलोप सूचक चिह्न दिए हैं। अतः यह कह सकना, कि किस कारण से वह पंक्तिसंस्थ दीपक तीन प्रकार का होता है, कठिन है । ] कारण से तीन प्रकार का है । 'त्रिप्रकारम्' का विग्रह होगा तीन प्रकार हैं जिसके वह । उनमें से पहला प्रकार तो अभी-अभी बताया गया 'कि बहुत से वर्ण्यमान पदार्थों के कहीं बहुत से प्रकाशक होते है' यह हैं । ( इसका उदाहरण ऊपर दिया ही जा चुका है)
दूसरा प्रकार वह है- दूसरे स्थान पर वह एक दीपक को दूसरा ( दीपक ) प्रकाशित करता है वह दूसरे के अतिशय को उत्पन्न करने के कारण दीपक ( अलङ्कार ) होता है । जो प्रकाशित हुआ है वह कर्मभूत है और दूसरा कर्तृभूत है वह दीपित अर्थात् प्रकाशित करता है, वह भी दूसरे को प्रकाशित करता है । द्वितीयदीपकप्रकारो यथा
क्षोणीमण्डलमण्डनं नृपतयस्तेषां श्रियो भूषणं ताः शोभां गमयत्यचापलमिदं प्रागल्भ्यतो राजते । तदूप्यं नयवर्त्मनस्तदपि च क्रौर्यक्रियालङ्कृतं विभ्राणं यदियत्तदा त्रिभुवनं छेत्तुं व्यवस्येदपि ॥ ७६ ॥ ( पंक्तिसंस्थ दीपक के ) दूसरे भेद का उदाहरण जैसे
भूमण्डल के शोभा हेतु राजा लोग हैं और उनकी शोभा हेतु सम्पत्तियाँ हैं ।
वे स्थिरता के द्वारा शोभा को प्राप्त कराई जाती है । और यह ( स्थिरता ) भी