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तृतीयोन्मेषः
३४३ इसके बाद इस दीपकालंकार के उदाहरण रूप में कुन्तक अधोलिखित प्राकृत श्लोक उद्धृत करते हैं।
चंकमंति करीन्दा दिसागअमअगन्धहारिअहिअआ । दुभव वणे च कइणो भणिइविसममहाकइ मग्गे ।। ७२ ।। ( चक्रम्यन्ते करीन्द्रा दिग्गजमदगन्धहारितहृदयाः ।
दुःखं वने च कवयो भणितिविषमहाकविमार्गे ॥) दिग्गजों के गण्डजल की महक से विदीर्ण कर दिए गए हृदय वाले गजेन्द्र जङ्गल में तथा उक्तियों के कारण विषम महाकवियों के मार्ग में कविजन दुःखपूर्वक सम्धरण करते हैं। ___ यथा दिक्कुञ्जरमदामोदहारितमानसाः करीन्द्राः कानने कथमपि दुःखं चक्रम्यन्ते, तथा भणितिविषमे वक्रोक्तिविचित्रे महाकविमार्गे.. कवय इति 'च'-शब्दार्थः।
"जिस प्रकार से दिग्गजों के गण्डजल की सुगन्धि से खिन्न चित्त वाले गजेन्द्र बन में किसी तरह दुःखपूर्वक विचरण करते हैं उसी प्रकार उक्तियों से विषम अर्थात् वक्रोक्तियों से विचित्र महाकवियों के पथ में कविजन (विचरण करते हैं) यह ( श्लोक में आये हुए ) 'च' शब्द का अभिप्राय है । कुन्तक उद्भट के इस सिद्धान्त को स्वीकार करते हैं कि यदि प्रस्तुत तथा अप्रस्तुत में प्रतीयमान वृत्ति द्वारा साम्य नहीं रहेगा तो वहाँ दीपकालङ्कार नहीं होगा। तथा उद्धट द्वारा अन्तर्गतोपमाधर्म की विशेषता के जोड़ देने का अनुमोदन करते हैं।
इसके बाद दीपकालङ्कार के अपने अभिमतलक्षण को इस प्रकार प्रस्तुत करते हैं
औचित्यावहमम्लानं तद्विदाह्लाद-कारणम् । अशक्तं धर्ममर्थानां दीपयद्वस्तु दीपकम् ॥ १॥॥ वर्णनीय पदार्थों के औचित्य का वहन करने वाले, सहृदयों के आह्लादजनक, अभिनव एवं अस्पष्ट धर्म को प्रकाशित करता हुआ पदार्थ दीपक अलङ्कार होता है।
तदिदानी दीपकमलङ्कारान्तरकारणं कलयन् कामपि काव्यकमनीयतां कल्पयितुं प्रकारान्तरेण प्रक्रमते-औचित्यावहमित्यादि । वस्तु दीपक वस्तुसिद्धरूपमलङ्करणं भवतीति सम्बन्धः, क्रियान्तराश्रवणात् । तदेवं सर्वस्य कस्यचिद्वस्तुनः तद्भावापत्तिरित्याह-दीपयत् प्रकाशयदलङ्करणं सम्पद्यते। किं कस्येत्यभिधत्ते-धर्म परिस्पन्दविशेषमर्थानां वर्णनीया