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वक्रोक्तिजीवितम्
नाम् | कीदृशम्-अशक्तम् अप्रकटम् तेनैव प्रकाश्यमानत्वात् । किंस्वरूपञ्च-औचित्यावहम् । औचित्यमौदार्यम् आवहति यः स तथोक्तः । अन्यच्च किंविधमः अम्लानम, प्रत्यग्र । अनालीढमिति यावत् । एवं स्वरूपत्वात् तद्विदाह्लादकारणम् , काव्यविदानन्दनिमित्तम् ।
इस कारिका की व्याख्या करते हैं तो अब दीपक को अन्य अलङ्कार का जनक समझते हुए काव्य की किसी अपूर्व रमणीयता को प्रस्तुत करने के लिए उसे दूसरे ढङ्ग से प्रस्तुत करते हैं -औचित्यावहम् इत्यादि (कारिका के द्वारा)। वस्तु दीपक होती है अर्थात् पदार्थ का सिद्ध रूप ( कारक पद ) अलङ्कार होता है । ( इस वाक्य का ) अन्य क्रिया के सुनाई न पड़ने से ( भवति होती है ) के साथ सम्बन्ध है । तो इस प्रकार सभी कोई वस्तु दीपकालङ्कार होने लगेगी अतः ( उसका निषेध करने के लिए ) कहते हैं कि-दीप्त करती हुई अर्थात् प्रकाशित करती हुई वस्तु अलङ्कार होती है। क्या ( प्रकाशित करती हुई वस्तु और ) किसका ( प्रकाशित करती हुई ) इसे बताते हैं-अर्थों अर्थात् वर्णनीय पदार्थों के धर्म अर्थात् स्वभाव विशेष को ( प्रकाशित करती हुई वस्तु अलङ्कार होती है ) । कैसे धर्म को-अशक्त अर्थात् जो प्रकट नहीं रहता क्योंकि वह उसी ( वस्तु ) के द्वारा प्रकाशित होने वाला होता है। और किस स्वरूप का है ( वह धर्म )
औचित्य का वहन करने वाला। औचित्य अर्थात् उदारता को जो वहन या धारण करता है वह औचित्य की वहन करने वाला होता है । और कैसा (धर्म होता है ) अम्लान अर्थात् अभिनव जिसका आस्वाद नहीं किया गया है । ऐसे स्वरूप वाला होने के कारण उसे जानने वालों के आह्लाद का कारण अर्थात् काव्य को समझने वालों के आनन्द का हेतु बनता है। ___इसके बाद जैसा कि डा० डे संकेत करते हैं कि पाण्डुलिपि अत्यन्त दोषपूर्ण है अतः कुन्तक ने दीपक अलङ्कार का वर्गीकरण कैसे किया है इसे ठीक-ठीक नहीं प्रतिपादित किया जा सकता, पर जहाँ तक पाण्डलिपि से विषय को समझा जा सकता है वह इस प्रकार है । कुन्तक निम्न कारिका को प्रस्तुत करते हैं
एकं प्रकाशकं सन्ति भूयांसि भूयसां क्वचित् । केवलं पतिसंस्थं वा द्विविधं परिदृश्यते ॥ १७ ॥
अस्यैव प्रकारान्निरूपयति-द्विविधं परिदृश्यते । द्विप्रकारमवलोक्यते, लक्ष्ये विभाव्यते ! कथम् केवलमसहायम् , पतिसंस्थं वा पतौ व्यवस्थितं तत्तुल्यकक्ष्यायां सहायान्तरोपरचितायां वर्तमानम् । कथम् एकं बहूनां पदार्थानामेकं प्रकाशकं दीपकं केवलमित्युच्यते । यथा