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वक्रोक्तिजीवितम् बतायें कि ) उन कियापदों एवं वाक्यादि का परस्पर कौन सा वैसा स्वरूप का अतिशय उत्पन्न हो जाता है ( जिससे कि आप उस क्रिया पद को अलंकार कहते है । क्योंकि उसका स्वरूप तो वही रहता है )।
क्रियापदप्रकारभेदनिबन्धनं वाक्यस्य यदादिमध्यान्तं तदेव तदर्थवाचकेष्वपि सम्भवतीत्येवं दीपकप्रकारानन्त्यप्रसङ्गः । दीपकालङ्कारविहितवाक्यान्तर्वर्तिनः क्रियापदस्य भ्वादिव्यतिरिक्तस्यैव काव्यान्तरव्यपदेशः । यदि वा समान विभक्ती (क्ता ?) नां बहूनां करका (णा ?) नामेकक्रियापदं प्रकाशकं दीपकमित्युच्यते, तत्रापि काव्यच्छायातिशयकारितायाः किं निबन्धनमिति वक्तव्यमेव ।
( और जैसा कि आप ) क्रियापद के प्रकार-भेद का कारण वाक्य के जिस आदि, मध्य एवं अन्त (को स्वीकार करते ) हैं ( वैसे ही ) वही ( आदि, मध्य एवं अन्त ) उस ( वाक्य ) के अर्थ का प्रतिपादन करने वाले ( अन्य पदों) में भी सम्भव हो सकता है अतः इस प्रकार दीपक के भेद अनन्त होने लगेंगे। दीपकालंकार प्रस्तुत करने के लिए ले आये गये वाक्य के भीतर स्थित भ्वादि से भिन्न क्रियापद की दूसरे प्रकार की काव्यता होगी।
अथवा समान विभक्तियों वाले बहुत से कारकों का प्रकाश अकेला क्रियापद दीपक कहा जाता है, तो भी यह बताना ही पड़ेगा कि काव्यसौन्दर्य में उत्कर्ष लाने का क्या कारण है ?
इस प्रकार भामह के दीपकालंकार के लक्षण का खण्डन कर कुन्तक उद्भट की दीपकालंकार की व्याख्या को भामह की अपेक्षा अधिक उपयुक्त समझते हैं । और इसी लिए शायद वे उद्भट को अभियुक्ततर भी कहते हैं-वे कहते हैं
प्रस्तुताप्रस्तुतविध्यसामर्थ्यसम्प्राप्तिप्रतीयमानवृत्तिसाम्यमेव नान्यः किञ्चिदित्यभियुक्ततरैः प्रतिपादितमेव
आदिमध्यान्तविषयाः प्राधान्येतरयोगिनः ।
अन्तर्गतोपमा धर्मा यत्र तद्दीपकं विदुः ।। ७१ ॥ प्रस्तुत और अप्रस्तुत के बीच विधि की असमर्थता की प्राप्ति होने के कारण प्रतीयमान व्यापार का साम्य ही आता है और दूसरा कुछ नहीं ऐसा श्रेष्ठ विद्वानों द्वारा ही प्रतिपादित किया जा चुका है
दीपकालंकार उसे कहते हैं जहां प्राधान्य एवं अप्राधान्य से सम्बन्ध रखने बाले ( वाक्य के ) आदि, मध्य एवं अन्त के विषयभूत धर्म उपनिबद्ध किए जाते है जिनमें ( परस्पर ) उपमानोपमेयभाव विद्यमान रहता है (अन्तर्गतोपमा )।