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तृतीयोन्मेषः
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जैसे वह रसवत् नामक ( अलङ्कार ) समस्त अलङ्कारों का प्राण एवं काव्य का सर्वस्व बन जाता है उसी प्रकार ( ग्रन्थकार ) अब विवेचन करने जा रहे हैं।
सरसता का सम्पादन करने के कारण, तथा काव्यतत्त्व को समझने वाले ( सहृदयों ) को आनन्द-प्रदान करने के कारण जो अलङ्कार रस के समान होता है वह रसवत् ( अलङ्कार होता है । ) ___ यथेत्यादि । यथा स रसवन्नाम यथा येन प्रकारेण पूर्वप्रत्याख्यातवृत्तिरलङ्कारो रसवदभिधानः काव्यैकसारतां याति काव्यैकसर्वस्वतां प्रतिपद्यते सर्वालङ्कारजीवितं सर्वेषामलङ्काराणामुपमादीनां जीवितं स्फुरितं सम्पद्यते । तथा तेन प्रकारेणेदानीमधुना विविच्यते विचार्यते लक्षणोदाहरणभेदेन वितन्यते ।
ययेत्यादि । जैसे वह रसवत् नामक अर्थात् जिस प्रकार से रसवत् नामक अलंकार, जिसकी स्थिति का पहले खण्डन किया जा चुका है, ( यह ) काव्य की एक मात्र सारता को प्राप्त होता है अर्थात् काव्य का एकमात्र ( अकेला ही) सर्वस्व बन जाता है, तथा समस्त अलंकारों का जीवन अर्थात् सभी उपमा आदि अलंकारों का प्राण बन जाता है, वैसे उस प्रकार से अब इस समय विवेचन या विचार किया जा रहा है अर्थात् लक्षण एवं उदाहरण के भेद पूर्वक विस्तार किया जा रहा है।
तमेव रसवदलङ्कारं लक्षयति-रसेनेत्यादि । 'योऽलङ्कारः स रसवत् इत्यन्वयः । यः किल एवंस्वरूपो रूपकादिः रसवदभिधीयते । किं स्वभारेन-रसेन वर्तते तुल्यम् । शृङ्गारादिना तुल्यं वर्तते, यथा ब्राह्मणवत् क्षत्रियस्तथैव स रसवदलङ्कारः। कस्मात्-रसवत्त्वविधानतः । रसोऽस्यास्तीति रसवत् काव्यम् तस्य भावस्तत्त्वम् ततः, सरसत्वसम्पादनात् । तद्विदाह्रादनिर्मितेश्च । तत् काव्यं विदन्तीति तद्विदः, तज्ज्ञास्तेषामाह्नादनिर्मितेरानन्दनिष्पादनात् । यथा (तथा ?) रसः काव्यस्य रसवत्तां तद्विदाह्रादश्च विदधाति । एवमुपमादिरप्युभयं निष्पादयन् भिन्नो रसवदलङ्कारः सम्पद्यते । यथा
उसी रसक्दलंकार का लक्षण करते हैं-रसेनेत्यादि ( कारिका के द्वारा)। 'जो अलंकार है वह रसवत् होता है' यह कारिका का अन्वय है। अर्थात् जो इस प्रकार के रूपकादि हैं वे रसवत् कहे जाते हैं। जिस प्रकार के (रूपकादि)-(जो ) रस के तुल्य होते हैं। रस अर्थात् शृङ्गारादि के समान रहते हैं, जैसे ब्राह्मण के समान क्षत्रिय होता है ( ऐसा कहा जाता