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________________ ३३४ वक्रोक्तिजीवितम् नहीं जा सकता। क्योंकि उसके विषय में कोई भी संकेत डा. डे के संस्करण में स्पष्ट नहीं * ___इसके बाद कुन्तक अपने अभिमत रसवत् अलङ्कार की व्याख्या प्रारम्भ करते हैं : उसकी अवतरणिका रूप में वे कहते हैं तदेवं चेतनाचेतनपदार्थभेदभिन्नं स्वाभाविक-सौकुमार्य-मनोहरं वस्तुनः स्वरूपं प्रतिपादितम् । इदानीं तदेव कविप्रतिभोल्लिखितलोकोत्तरा. . तिशयशालितया नवनिर्मितं मनोज्ञतामुपनीयमानमालोच्यते । तथाविधभूषणविन्यासविहितसौन्दर्यातिशयव्यतिरेकेण भूतत्वनिमित्तभूतं न . तद्विदाह्लादकारितायाः कारणम् । ___तो इस प्रकार चेतन एवं अचेतन पदार्थों का भेद होने के कारण अलगअलग या भेदयुक्त तथा सहज सुकुमारता से मनोहर वस्तु का स्वरूप प्रतिपादित किया गया। अब कवि की शक्ति द्वारा वर्णित किए गये अलौकिक उत्कर्ष से सुशोभित होने के कारण अपूर्व निर्माण से युक्त एवं रमणीयता को प्राप्त कराये जाने वाले उसी स्वरूप का विवेचन (प्रन्थकार) प्रस्तुत करता है। उस प्रकार की अलङ्कार रचना द्वारा जनित शोभा के उत्कर्ष के विना केवल पदार्थता का निमित्तभूत ( वर्णन ) सहदयों को आह्लादित करने का कारण नहीं बनता है। [ यहाँ पर, जैसा कि डा. हे संकेत करते हैं, कुन्तक दो अन्तरश्लोकों को उद्धृत कर एक अन्य 'अभिधायाः प्रकारो स्तः ॥' इत्यादि कारिका की व्याख्या प्रस्तुत करते हैं। पाण्डुलिपि के अत्यन्त भ्रष्ट होने के कारण डा० डे उसे पढ़ नहीं सके । अतः वहां क्या विवेचन किया गया है कुछ भी नहीं कहा जा सकता। इसके अनन्तर वे अपने अभिमत रसवदलङ्कार का विवेचन इस प्रकार प्रारम्भ करते हैं - यथा स रसवन्नाम सर्वालङ्कारजीवितम् । काव्यैकसारतां याति तथेदानी विवेच्यते ॥ १४ ॥ रसेन वर्तते तुल्यं रसवत्त्वविधानतः । योऽलङ्कारः स रसवत् तद्विदाह्लादनिर्मितेः ॥ १५ ॥ • हवं समाहितस्याप्यलदायत्वमेव न्याय्यम् , न पुनरबारमावः। इस प्रकार समाहित की मी महायता हो समुचित है, अलारस्व नहीं।
SR No.009709
Book TitleVakrokti Jivitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRadhyshyam Mishr
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages522
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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