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तृतीयोन्मेषः
३३१ चरितश्च महात्मनाम् । उपलक्षणतां प्राप्त नेतिवृत्तत्वमागतम् ॥ ५६ ॥ इस उदात्तालंकार के दूसरे भी भेद की अलंकार्यता ही उपयुक्त है न कि अलंकारता । क्योंकि इस (दूसरे प्रकार ) का लक्षण है कि
(जहाँ पर ) महात्माओं का चरित उपलक्षण होकर आता है, इतिवृत्त के रूप में नहीं प्रयुक्त होता (वहाँ दूसरे प्रकार का उदात्तालंकार होता है।) __इति । तत्र वाक्यार्थपरमार्थविद्भिरेवं पर्यालोच्यताम्-यन्महानुभावानां व्यवहारस्योपलक्षणमात्रवृत्तेरन्वयः प्रस्तुते वाक्यार्थे कश्चिद्विद्यते वा न वेति । तत्र पूर्वस्मिन् पक्षे-तत्र तदलीनत्वात् पृथगभिधेयस्यापि पदार्थान्तरवत्तदवयवत्वेनैव व्यपदेशो न्याय्यः । पाण्यादेरिव शरीरे । न पुनरलङ्कारभावोऽपीति | अन्यस्मिन् पक्षे-तदन्वयाभावादेव वाक्यान्तरवतिपदार्थवत्तस्य तत्र सत्तैव न सम्भवति, किं पुनरलङ्करणत्वचर्चा । ___ इसमें वाक्यार्थ के परमार्थ को जाननेवाले ( विद्वानों) को इस प्रकार विचार करना चाहिए-कि इस वाक्यार्थ में महापुरुषों के केवल उपलक्षण रूप ही व्यवहार का कोई संबंध है या नहीं है। उनमें से पहला पक्ष ( कि सम्बन्ध है ) स्वीकार करने पर उसमें लीन न होने के कारण अलग से प्रतिपाद्य भी ( उस व्यवहार का ) अन्य पदार्थों की भांति उस वाक्यार्थ के अवयव रूप से ही कथन करना उचित है जैसे शरीर में हाथ इत्यादि का ( शरीर के अवयव रूप में ही प्रयोग होता है ), न कि अलङ्कारता भी उचित होती है । दूसरा पक्ष ( कि सम्बन्ध नहीं होता है ऐसा ) स्वीकार करने पर-उसका सम्बन्ध ही न होने से दूसरे वाक्यों में रहने वाले पदार्थ की भांति उसकी वहाँ सत्ता ही नहीं सम्भव होती है, तो भला अलङ्कारता की चर्चा कैसे हो सकती है।
[इसके बाद, जैसा कि डा० हे संकेत करते हैं, कुन्तक ने इस विषय में किसी श्लोक को उद्धृत किया है जो कि पाण्डुलिपि की भ्रष्टता के कारण पढ़ा नहीं जा सका।]
इस प्रकार ऊर्जस्वि एवं उदात्त की अलङ्कारता का खण्डन कर कुन्तक समाहित अलङ्कार का विवेचन करते हैं। वे कहते हैं
तथा समाहितस्यापि प्रकारद्वयशोभिनः ॥ १३ ॥