________________
३३०
वक्रोक्तिजीवितम् .
( उदात्त अलङ्कार है ) इस आकांक्षा से यदि उस वस्तु को (ऋद्धिमत् ) अर्थात् 'ऋद्धि से सम्पन्न' इस विशेषण से विशिष्ट कर दिया जाता है तो जो ही सम्पत्ति से युक्त वस्तु वर्णनीय होने के कारण अलङ्कार्य है, वही अलङ्कार है इस प्रकार अपने में ही क्रियाविरोध रूप दोष के हटाये न जा सकने के कारण तथा अपने अपने स्वरूप से भिन्न अन्य किसी पदार्थ की प्रतीति न कराने के कारण ऊर्जस्वि की तरह ही ( अलङ्कार नहीं हो सकता )।
अथवा ऋद्धिमद्वस्तु यस्मिन् यस्य वेत्यपि व्याख्यानं क्रियते, तथापि तदन्यपदार्थलक्षणं वस्तु वक्तव्यमेव यत्समानार्थतामुपनीतं । तदृद्धिमद्वस्तु यस्मिन् तस्य वेति तत्काव्यमेव तथाविधं भविष्यतीति चेत् तदपि न किञ्चिदेव । यस्मात्काव्यस्यालङ्कार इति प्रसिद्धिः, न पुनः काव्यमेवा. लकरणमिति ।
अथवा सम्पत्ति सम्पन्न वस्तु जिसमें हो अथवा जिसकी हो ( वह उदात्त अलङ्कार है ) इस प्रकार व्याख्या करते हैं। तो भी वह भिन्न पदार्थ रूप वस्तु बताना ही पड़ेगा जिसकी समानार्थकता को प्राप्त कराया गया है।
वह ऋद्धिमत् वस्तु जिसमें अथवा जिसके हो वह काव्य ही उस प्रकार ( उदात्त अलंकार ) होगा यदि ऐसा कहते हैं तो भी यह कुछ भी नहीं है। क्योंकि काव्य का अलंकार ( होता है ) यही प्रसिद्ध है न कि फिर काव्य ही अलंकार होता है ( ऐसी प्रसिद्धि है)।
यदि वा ऋद्धिमद्वस्तु यस्मिन् यस्य वेत्यसावलंकारः"तथापि वर्णनीयालङ्कारणव्य(म?)तिरिक्तमलङ्करणकल्पमन्यदत्र किश्चिदेवोपलभ्यत इत्युभयथापि शब्दार्थासङ्गतिलक्षणदाषः सम्प्राप्तावसरः सम्पद्यते । ___ अथवा यदि सम्पत्ति सम्पन्न वस्तु जिसमें अथवा जिसके हो ऐसा अलंकार ( ही उदात्त अलंकार है ) तो भी प्रतिपाद्य अलंकार से भिन्न कोई अन्य अलंकार सा यहाँ प्राप्त होता है (ऐसा स्वीकार करना पड़ेगा) इस प्रकार दोनों ही ढंगों से शब्द एवं अर्थ की असंगति रूप दोष का अवसर उपस्थित हो जाता है। ( अतः ऋद्धिमद्वस्तु उदात्त अलंकार होता है यह कहना अनुचित है। उदात्त अलंकार नहीं अपितु अलंकार्य ही होता है । )
इसके बाद उद्भट द्वारा प्रतिपादित द्वितीय उदात्त प्रकार का विश्लेषण करते हुए कहते हैं कि
द्वितीयस्याप्युदात्तप्रकारस्यालकार्यत्वमेवोपपन्नम् , न पुनरलङ्कारभावः । तथा चैतस्य लक्षणम्