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________________ ३३२ वक्रोक्तिजीवितम् तथा तेनैव पूर्वोक्तेन प्रकारेण समाहिताभिधानस्य चालङ्कारस्य भूषण न विद्यते नास्तीत्यर्थः । उसी प्रकार दो भेदों से शोभित होनेवाले समाहित की ( अलङ्कारता नहीं होती ) ॥ १३ ॥ वैसे अर्थात् उसी ( ऊर्जस्वि आदि में प्रतिपादित किये गये ) पहलेवाले उङ्ग से समाहित नाम के अलङ्कार की अलङ्कारता नहीं होती है। यह आशय है। इसके अनन्तर कुन्तक कारिका में निर्दिष्ट किए गये दो प्रकारों में से प्रथम प्रकार अर्थात् उद्भट द्वारा दिये गए समाहित अलङ्कार के लक्षण का खण्डन करते हैं। परन्तु जैसा कि डा० डे ने पाठ दे रखा है वह उद्भट के ग्रन्थ में प्राप्त लक्षण से कुछ भिन्न है। उद्भट के ग्रन्थ में समाहित का लक्षण इस प्रकार है रसभावतदाभासवृत्तेः प्रशमबन्धनम् ।। अन्यानुभावनिःशून्यरूपं यत्तत्समाहितम् ।। ५७ ।। जहाँ पर अन्य अनुभावों से निःशून्य रूप में रस, भाव, रसाभास तथा भावाभास के व्यापार की शान्ति उपनिबद्ध की जाती है वहाँ समाहित अलङ्कार होता है ।। ५७ ॥ किन्तु प्रस्तुत ग्रन्थ का लक्षण इस प्रकार है रसभावतदाभासतप्रशान्त्यादिरक्रमः । अन्यानुभावनिःशून्यरूपो यस्तत्समाहितम् ।। परन्तु यह लक्षण समीचीन नहीं हैं। [इस उद्भट के अभिमत लक्षण का खण्डन कुन्तक ने किन तर्कों से किया है उसके विषय में कुछ भी नहीं कहा जा सकता क्योंकि न तो डा० डे ने उसका मूल ही प्रकाशित किया है और न उनके विषय में कोई संकेत ही किया है । इस प्रकार का उदाहरण कुन्तक ने इस पद्य को दिया है-] अक्षणोः स्फुटाकलुषोऽरुणिमा विलीनः शान्तं च सार्धमधरस्फुरणं भ्रकुट्या। भावान्तरस्य ( तव) गण्डगतोऽपि कोपो नोगाढवासनतया प्रसरं ददाति ।। ५८ ॥ स्पष्ट आँसुओं की कलुषता वाली आँखों की रक्तिमा गायब हो गयी और भौहों के साथ-साथ ही अधर का फड़कना भी समाप्त हो गया है।
SR No.009709
Book TitleVakrokti Jivitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRadhyshyam Mishr
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages522
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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