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तृतीयोन्मेषः
३१३ रसवतस्तदास्पदत्वं नोपपद्यते, रसस्यैव स्ववाच्यस्यापि तदास्पदत्वाभावात् । किमुतान्यस्येति । तदलकारत्वं च प्रथममेव प्रतिषिद्धम् | शिष्टं स्थाय्यादिलक्षणं पूर्व व्याख्यातमेवेति न पुनः पर्यालोच्यत ।
(अब दूसरे पक्ष में ) रसवत् ( अलंकार ) का उस ( शृंगारादि शब्दों) में प्रतिष्ठित होना ठीक नहीं लगता ( क्योंकि ) अपने वाच्य भी रस का ही जब उसमें प्रतिष्ठित होना असम्भव है तो दूसरे की प्रतिष्ठ उसमें कैसे हो सकती है। तथा उस रस की अलंकारता का प्रतिषेध पहले ही किया जा चुका है। शेष स्थायी आदि के लक्षण की पहले ही व्याख्या की जा चुकी है अतः फिर से उसका विवेचन नहीं किया जा रहा है । यदपि ।
रसवद्रससंश्रयात् ।। ३८ ॥ इति कैश्चिल्लक्षणमकारि तदपि न सम्यक् समाधेयतामधितिष्ठति । तथा हि-रसः संश्रयो यस्यासौ रससंश्रयः, तस्मात् कारणादयं रसबदलङ्कारः संपद्यते । तथापि वक्तव्यमेव-कोऽसौ रसव्यतिरिक्तवृत्तिः पदार्थः । काव्यमेवेति चेत् तदपि पूर्वमेव प्रत्युक्तम् , तस्य स्वात्मनि क्रियाविरोधादलकारत्वानुपपत्तेः । अथवा रसस्य संश्रयो रसेन संश्रियते यस्तस्माद् रससंश्रयादिति । तथापि कोऽसाविति व्यतिरिक्तत्वेन वक्त. व्यतामेवायाति | उदाहरणजातमप्यस्य लक्षणस्य पूर्वेण समानयोगक्षेमप्रायमिति (न) पृथक पर्यालोच्यते । और जो भी
रसवद्रससंश्रयात् ॥ ३८॥ ऐसा किसी ने ( रसवदलंकार का ) लक्षण किया है उसे भी भलीभांति समाधानयुक्त नहीं कहा जा सकता। क्योंकि-रस जिसका आश्रय है उसे रस के आश्रय वाला कहा जायगा और उसी कारण से यह रसवदलंकार सम्पन्न होता है। फिर भी यह तो बताना ही पड़ेगा कि रस से भिन्न स्थिति वाला यह कौन सा पदार्थ है । ( यदि यह कहा जाय कि ) काव्य ही है (वह पदार्थ) तो भी उसका पहले ही खण्डन किया जा चुका है अपने में (ही. ) क्रिया विरोध होने के कारण अलंकारता की सिद्धि न होने से । अथवा रस का जो आश्रय है या जिसका रस आश्रय ग्रहण करता है उसके कारण ( रसक्दलंकार कहा जाता है ऐसा समास करें ) तो भी ( रस से) भिन्न वह क्या है।