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वक्रोक्तिजीवितम् यहाँ शृंगार रूप वर्णन के योग्य शरीरभूत चित्तवृत्ति से भिन्न कोई अन्य वस्तु नहीं दिखाई पड़ती। इसलिये ( इसका ) अलंकार्य होना ही युक्तिसंगत है। और जो किसी ने
स्वशब्द, स्थायिगाव, सञ्चारीभाव, विभाव एवं अभिनय के अधिष्ठानवाला ( स्पष्ट रूप से प्रस्तुत किया गया श्रृंगारादि रसवदलंकार होता है ) ॥ ३७॥ ' इत्यनेन पूर्वमेव लक्षणं विशेषितम् , तत्र स्वशब्दास्पदत्वं रसानामपरिगतपूर्वमस्माकम् । ततस्त एव रससर्वस्वसमाहेत चेतसस्तत्परमार्थ. विदो विद्वांसः परं प्रष्टव्याः-किंस्वशन्दास्पदत्वरसानामुत रसवत इति । तत्र पूर्वस्मिन् पक्षे–रस्यन्त इति रसास्ते स्वशब्दास्पदास्तेषु तिष्ठन्तः शृङ्गारादिषु वर्तमानाः सन्तस्तरास्वाद्यन्ते । तदिदमुक्तं भवति यत् स्वशब्दैरभिधीयमानाः श्रुतिपथमवतरन्तश्चेतनानां चर्वणचमत्कार कुर्वन्तीत्यनेन न्यायेन घृतपूरप्रभृतयः पदार्थाः स्वशब्दैरभिधीयमान्तस्तदास्वादसंपदं संपादयन्तीत्येवं सर्वस्य कस्यचिदुपभोगसुखार्थिनस्तैरुदारचरितैरयत्नेनैव तदभिधानमात्रादेव त्रैलोक्यराज्यसंपत्सौख्यसमृद्धिः प्रतिपाद्यते इति नमस्तेभ्यः ।
इससे पहले वाले लक्षण को ही विशिष्ट किया गया है। उसमें रसों को अपने शब्दों में प्रतिष्ठित होना तो हमने पहले-पहल जाना है। इसलिये जिनका हृदय रससर्वस्व में ही समाधिस्थ है ऐसे परमार्थ को जाननेवाले उन्हीं पण्डितों से पूछना है कि-अपने शब्दों में रस प्रतिष्ठित रहता है अथवा रसवत् ( अलंकार )। उनमें पहले पक्ष में (कि रस अपने शब्दों में प्रतिष्ठित होता है)-जिनका रसन ( अर्थात् आस्वादन) किया जाता है वे रस होते हैं वे स्वशब्दास्पद अर्थात् उन ( अपने शब्दों) में स्थित मर्थात् भूगारादि में विद्यमान रहते हुए उनके जानने वालों द्वारा आस्वादित किए जाते हैं।
तो इस कथन का आशय यह हुआ कि-(श्रृंगारादि रस ) अपने शब्दों द्वारा सुनाई पड़ते हुए सहृदयों को रस-चर्वणा का आह्लाद प्रदान करते हैं
और इस ढंग से घृतपूर इत्यादि पदार्थ अपने शब्दों द्वारा कहे जाते हुए उसके मास्वाद के आनन्द को उत्पन्न कर देते हैं इसलिए वे उदारचरित्र ( महापुरुष) उपभोग सुख की इच्छा वाले किसी भी व्यक्ति के लिये उसका नाम ले लेने से ही तीनों लोकों के राज्य-सम्पत्ति के सुख वाली समृद्धि का प्रतिपादन करते हैं अतः उन्हें नमस्कार है।