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तृतीयोन्मेषः
३१९ पानया समासादितप्रसिद्धिः पश्चाद् भविष्यनि वाक्यार्थसंबन्धलक्षणयोग्यतया तमनुभवितुं शक्नोति । न पुनरत्रैवं प्रयुज्यते । यस्माद्रसवतः काव्यस्यालङ्कार इति तत्संबन्धितयैवास्य स्वरूपलब्धिरेव । तत्संबन्धिनिबन्धनं च काव्यस्य रसवत्त्वमित्येवमितरेतराश्रयलक्षणदोषः केनापसायने । यदि वा रसो विद्यते यस्यासौ तद्वानलकार एवास्तु इत्यभिधीयते तथाप्यलवारः काव्यं वा नान्यत् तृतीयं किंचिदत्रास्ति । तत्पक्षद्वितयमपि प्रत्युक्तम् । उदाहरणं लक्षणैकयोगक्षेमत्वात् पृथ न विकल्प्यते ।
अथवा यदि उसी ( रसवदलंकार ) के कारण रस से सम्बन्ध स्थापित होने से ( वह ) रस से युक्त काव्य का अलङ्कार उसके बाद रसवदलङ्कार कहा जाता है-जैसे इसका लड़का अग्निष्टोम यज्ञ करने वाला होगा-ऐसा कहा जाता है तो यह भी समाधान ठीक नहीं है। क्योंकि 'अग्निष्टोमयाजि' शब्द भूतरूप दूसरे विषय में निष्पन्न होने के कारण प्रसिद्धि को प्राप्त हो जाने के बाद भविष्यवाची वाक्यार्थ के साथ सम्बन्ध रूप योग्यता से उसका अनुभव कर सकता है । लेकिन यहाँ पर ऐसा प्रयोग ठीक नहीं। क्योंकि रस से युक्त काव्य का अलंकार ( रसवदलंकार होता है ) इस प्रकार इसके स्वरूप की प्राप्ति ही उस ( रसवकाव्य ) के सम्बन्धित रूप से होती है तथा वह सम्बन्ध का होना ही काव्य के रसयुक्त होने का कारण है इस प्रकार इस अन्योऽन्याश्रय दोष को कौन दूर कर सकता है। अथवा यदि जिसके रस है वह उस रस से युक्त अलंकार ही है ऐसा कहा जाय तो भी अलंकार अथवा काव्य से भिन्न कोई तीसरा है ही नहीं ( जिसे रसबदलंकार कहा जाय ) तथा इन दोनों पक्षों का खण्डन किया जा चुका है। लक्षण मात्र के ले आने या समर्पित करने के कारण उदाहरण का अलग से खण्डन नहीं किया जाता है।
मृतेति प्रेत्य सङ्गन्तुं यथा मे मरणं स्मृतम् ।
सैवावन्ती मया लब्धा कथमत्रैव जन्मनि ॥ ३६ ।। जैसे-( दणी का रसवदलंकार का निम्न उदाहरण ) (प्रियावासवदत्ता) मर गई है ऐसा सोचकर जिसके साथ सम्मिलन के लिए मुझे मृत्यु अभीष्ट थी वही वासवदत्ता मुझे इसी जन्म में कैसे मिल गई ॥ ३६॥ ____ अत्र रतिपरिपोषलक्षणवर्णनीयशरीरभूतायाश्चित्तवृत्तेरतिरिक्तमन्यद्विभक्तं वस्तु न किंचिद्विभाव्यते । तस्मादलकार्यतैव युक्तिमती। यदपि कैश्चित्
स्वशब्दस्थायिसंचारिविभाषाभिनयास्पदम् ॥ ३०॥