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वक्रोक्तिजीवितम् यदि वा दशिताः स्पष्टं शृङ्गारादयो येनेति समासः, तथापिवक्तव्यमेवकोऽमाविति ? प्रतिपादनवैचित्र्यमेवेति चेत्, तदपि न सम्यक् समर्थनाहम । यस्मात् प्रतिपाद्यमानादन्यदेव तदुपशोभानिबन्धनं प्रतिपादनवैचित्र्यम् , न पुनः प्रतिपाद्यमेव । स्पष्टतया दर्शितं रसानां प्रतिपादनवैचित्र्यं यद्यभिधीयते, तदपि न सुप्रतिपादनम् । स्पष्टतया दर्शने शृङ्गारादीनां स्वरूपपरिनिष्पत्तिरेव पर्यवस्यति । किंच, रसवतः काव्यस्यालङ्कार इति तथाविधस्य सतस्तस्यासाविति न किंचिदनेन तस्याभिधेयं स्यात् ।
अथवा यदि 'जिसके द्वारा स्पष्ट रूप से शृंगारादि दिखाये गये हों' ( वह रसवदलंकार है ) ऐसा समास स्वीकार किया जाय तो भी बताना ही पड़ेगा कि यह कौन है ( जिसके द्वारा स्पष्ट रूप से शृङ्गारादि दिखाये गये हों)। ( यदि उत्तर दें कि) प्रतिपादन की विचित्रता ही वह । अलंकार है ) तो वह भी भलीभांति समर्थन करने योग्य नहीं है। क्योंकि जिसका प्रतिपादन किया जा रहा है उसकी गोण सुन्दरता का कारण उससे भिन्न ही प्रतिपादन की विचित्रता होती है। न कि जिसका प्रतिपादन किया जा रहा है, बही ( अपनी उपशोभा का कारण होता है । ___ यदि कहा जाय कि स्पष्ट रूप से दिखाया गया रसों के प्रतिपादन की विचित्रता ही ( रसवद् अलङ्कार है ) तो वह भी अच्छा समझाना नहीं होगा। ( क्योंकि ) शृङ्गारादि के साफ-साफ दिखाई पड़ने पर उनका स्वरूप ही भलीभांति निष्पन्न होगा। और यदि 'रसवान्' काव्य का अलङ्कार ( रसवदलंकार होता है ) इस प्रकार ( कहा जाय तो) उस प्रकार ( रसवान् ) होने पर उसका यह ( रसवद् अलंकार है ) इस कथन से उसका कुछ भी निरूपण नहीं होता। अथवा उसी ( रसवत् ) अलंकार के कारण वह काव्य रसवान् होता है, ( यह कहा जाय) तो इस प्रकार यह रसवान् ( काव्य ) का अलंकार नहीं है अपितु. रसवान् अलंकार है यह अर्थ होने लगेगा, उसी के माहात्म्य से काव्य भी रस से सम्पन्न हो जाता है।
अथवा तेनैवालङ्कारेण रसवत्त्वं तस्याधीयते, तदेवं तबसौ न रसवतोऽलङ्कारः प्रत्युत रसवानलङ्कार इत्यायाति, तन्माहात्म्यात् काव्यमपि रसवत् संपद्यते । यदि वा तेनैवाहितरससम्बन्धस्य रसवतः काव्यस्यालकार इति तत्पश्चाद्रसवदलङ्कारव्यपदेशमासादयतियथाग्निष्टोमयाज्यस्य पुत्रो भवितेत्युच्यते-तदपि न सुप्रतिबद्धसमाधानम्। यस्माद् 'अग्निष्टोमयाजि' शब्दः प्रथमं भूतलक्षणे विषयान्तरे निष्पति