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________________ तृतीयोन्मेषः ३०९ किसी प्रमाता के हृदय में स्फुरित होती है। लेकिन 'रसवत् अलंकार से युक्त है' इस वाक्य से सावधान चित्त वाले व्यक्ति के हृदय में भी कुछ नहीं प्रस्फुरित होता, ऐसा ही मैं समझता हूँ। __ तथा च-यदि शृङ्गारादिरेव प्राधान्येन वण्यमालोऽलंकार्यस्तदन्येन केनचिदलंकरणेन भवितव्यम् । यदि वा तत्स्वरूपमेव तद्विवाहादनि बन्धनत्वादलंकरणभित्युच्यते तथापि तद्वयतिरिक्तमन्यदलंकार्यतया प्रकाशनीयः । तदेवंविधो न कश्चिदपि विवेकश्चिरन्तनालंकाराभिसते रसवदलंकारलक्षणोदाहरणमार्गे मनागपि विभाव्यते । यथा च रसवदर्शितस्पष्टशृङ्गारादि ।। ३५॥ . और भी-यदि शृंगारादि ही मुख्य रूप से वर्णित होने पर अलंकार्य है तो उससे भिन्न कोई अलंकार होना चाहिए। अथवा यदि श्रृंगारादि का स्वरूप ही सहृदयों के आनन्द का जनक होने से अलङ्कार कहा जाता है तो भी उससे भिन्न अलङ्कार्य रूप में किसी को व्यक्त करना चाहिए। तो इस प्रकार का तनिक भी कोई भी विवेचन प्राचीन आलङ्कारिकों द्वारा स्वीकृत 'रसवत्' अलङ्कार के लक्षण अथवा उदाहरण मार्ग में नहीं दिखाई पड़ता। जैसे कि रसवदर्शितस्पष्टभंगारादि ॥ ३५ ॥ [इति ] रसवल्लक्षणम् । अत्र दर्शिताः स्पष्टाः स्पष्टं वा शृङ्गारादयो यत्रेति व्याख्याने काव्यव्यतिरिक्तो न कश्चिदन्यः समासार्थभूतः संलक्ष्यते। योऽसावलंकारः काव्यमेवेति चेत् , तदपि न सुस्पष्टसौष्ठवम् | यस्मात् काव्यैकदेशयोः शब्दार्थयोः पृथक् पृथगलंकाराः सन्तीत्युपक्रम्येदानी काव्यमेवालंकरणमित्युपक्रमोपसंहारवैषम्यदुष्टत्वमायाति । यह ( भामह एवं उद्भट के अनुसार ) रसवत् अलङ्कार का लक्षण है। यहाँ पर दिखाये गये जहाँ शृंगारादि हों यानी स्पष्ट रूप से परामृष्ट हों-ऐसी व्याख्या करने पर काव्य से भिन्न समास का अर्थभूत कोई दूसरा नहीं दिखाई पड़ता। (और यदि ऐसा कहा जाय कि ) जो यह अलङ्कार है वह काव्य ही है, तो भी सुन्दरता स्पष्ट नहीं होती। क्योंकि पहले ( ग्रन्थ के आरम्भ में) काव्य के अवयवभूत शब्द और अर्थ के अलग-अलग अलङ्कार होते हैं ऐसा प्रारम्भ कर अब 'काव्य ही अलङ्कार है' ऐसा कथन प्रारम्भ एवं समाप्ति की विषमता से दूषित हो जाता है।
SR No.009709
Book TitleVakrokti Jivitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRadhyshyam Mishr
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages522
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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