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वक्रोक्तिजीवितम् इसे अलग से व्यक्त करना अपेक्षित ही है। इस लक्षण के सारे के सारे उदाहरण भी पहले की तरह ही ले आये जाने वाले और समर्पित किए जाने वाले से हैं इसी से उनका अलग विवेचन नहीं किया जा रहा है ।
रसपेशलम् ।। ३६ ।। इति पाठे न किंचिदत्रातिरिच्यते । अथ ... ... ... प्रतिपादकवाक्योपारूढपदार्थसार्थस्वरूपमलंकार्यरसस्वरूपानुप्रवेशेन (विगलितस्वपरिस्पन्दानां द्रव्यानामिव......) कथमलकरणं भवतीत्येतदपि चिन्त्यमेव । किच तथाभ्युपगमेऽपि प्रधानगुणभावविपर्यासः पर्यवस्यतीति न किंचिदेतत् ।
रशपेशलम् ॥ ३९ ॥
ऐसा पाठ कर देने पर भी कोई अन्तर नहीं आ पाता। और फिर प्रतिपादक वाक्य में प्रतिपादित किया गया पदार्थों का स्वरूप, अलंकार्य रस के स्वरूप के अनुप्रवेश से अलंकार कैसे हो जाता है यह भी विचारणीय ही है। और फिर वैसा स्वीकार कर लेने पर प्रधानता एवं गोणता का वैपरीत्य उपस्थित हो जाता है ( अर्थात् पदार्थ का स्वरूप जो कि अलंकार्य होने से प्रधान रहता है वही अलंकार होकर गौण बन जायगा ) इसलिये यह ( रसपेशलम् ) कथन भी कुछ नहीं है।
अत्रैव ... ... ... उपक्रमते-शब्दार्थासङ्गतेरपि। शब्दार्थयोरभिधानाभिधेययोरसमन्वयाच्च रसवदलङ्कारोपपत्तिर्नास्ति । अत्र च रसो विद्यते तिष्ठति यस्येति मत्प्रत्ययविहिते तस्यालङ्कार इति षष्ठीसमासः क्रियते। रसवांश्वासावलद्वारश्चेति विशेषणसमासो वा । तत्र पूर्वस्मिन् पते-रसव्यतिरिक्तमन्यत् पदार्थान्तरं विद्यते यस्यासावलङ्कारः। काव्यमेवेति चेत् , तत्रापि तद्वयतिरिक्तः कोऽसौ पदार्थो यत्र रसवदलङ्कारव्यपदेशः सावकाशतां प्रतिपद्यते ? विशेषातिरिक्तः पदार्थो न कश्चित् परिदृश्यते यस्तद्वानलकार इति व्यवस्थितिमा सादयति । तदेवमुक्कलक्षणे मार्गे रसवदलद्वारस्य शब्दार्थसङ्गतिने कदाचिदस्ति।
इसी विषय में (और भी ) आरम्भ करते हैं कि-शब्द एवं अर्थ की संगति न होने से भी ( रसवदलंकार नहीं हो सकता) शब्द तथा अर्थ अर्थात् अभिधान एवं अभिधेय का भलीभांति अन्वय ( अथवा सम्बन्ध ) न होने से भी रसवदलंकार की सिद्धि नहीं होती है। क्योंकि यहां पर, जिसमें