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________________ तृतीयोग्मेषः ३०५ करने के सामर्थ्य से युक्तरूप में वर्णन के कारण मनोहर स्वरूप ( श्रेष्ठ कवियों के ) वर्णन का विषय बन जाता है । जैसेइदमसुलभवस्तुप्रार्थनादुनिवारं प्रथममपि मनो मे पश्चबाणः निणोति । किमुन मलयवातोन्मूलितापाण्डुपत्रैरुपवनसहकारैर्दशितेष्वङ्कुरेषु ।। ३३ ॥ दुर्लभ पदार्थ की कामना से कठिनतापूर्वक रोके जा सकने वाले मेरे चित्त को कामदेव पहले ही क्षीण कर रहा है, तो भला दक्षिण पवन ( मलयानिल ) के द्वारा गिरा दिए गये पीले पत्तों वाले बगीचे के आम्र वृक्षों के द्वारा अङ्करों के दिखाई देने पर ( क्या होगा ) ॥ ३३ ॥ यथा वा उभेदाभिमुखाङ्कुराः कुरमकाः शैवालजालाकुलप्रान्तं भान्ति सरांसि फेनपटलैः सीमन्तिताः सिन्धवः । किंचास्मिन् समये कृशाङ्गि विलसत्कन्दर्पकोदण्डिक क्रीडाभानि भवन्ति सन्ततलताकीर्णान्यरण्यान्यपि ॥ ३४ ॥ अथवा जैसे । शीघ्र ही निकल पड़ने वाले अङ्करों वाले कुरबक (वृक्ष ), सेवार के जालों से व्याप्त किनारों वाले तालाब, और फेनों के समूहों से विभाजित कर दी गई नदियां सुशोभित हो रही हैं। और भी ऐ कृशांगि, इस समय भलीभांति विस्तीर्ण लताओं से व्याप्त विपिन भी विलसित होते हुए कामदेव के धनुष की क्रीड़ाओं से सम्पन्न हो रहे हैं ॥ ३४ ॥ ___ एवं स्वाभाविकसुन्दरपरिस्पन्दनिबन्धनं पदार्थस्वरूपमभिधाय तदेवोपसंहरति शरीरमिदमर्थस्य रामणीयकनिर्भरम् । उपादेयतया ज्ञेयं कवीनां वर्णनास्पदम् ॥९॥ इस प्रकार सहज सौन्दर्य के कारणभूत, पदार्थों के स्वरूप का प्रतिपादन कर उसी का उपसंहार करते हैं कवियों के वर्णन ( काव्य ) के आधारभूत, सुन्दरता से परिपूर्ण पदार्थ का यह शरीर उपादेय रूप से समझना चाहिए ॥ ९॥ ___ अर्थस्य वर्णनीयस्य वस्तुनः शरीरमिदम् उपादेयतया ज्ञेयं ग्राह्यत्वेन बोद्धव्यम् । कीदृशं सत्-रामणीयकनिर्भरम् , सौन्दर्यपरिपूर्णमा, औपहत्यरहितत्वेन तद्विदावर्जकमिति यावत् । कवीनामेतदेव यस्माद्वर्णन, २०व० जी०
SR No.009709
Book TitleVakrokti Jivitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRadhyshyam Mishr
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages522
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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