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तृतीयोग्मेषः ( होने पर)-अपनी जाति के अनुरूप स्वभाव के वर्णन मनोहर ( होने पर)। स्वकीय अर्थात् हर एक की अपनी जो जाति अर्थात् सामान्य रूप पदार्थ का स्वरूप होता है उसके अनुरूप जो हेवाक अर्थात् ( पदार्थ) के स्वभाव का अनुसरण करनेवाला ( पदार्थ) का धर्म उसका समुल्लेख अर्थात् भली-भांति वर्णन, वास्तविक ढङ्ग से प्रतिपादन, उसके कारण उज्ज्वल अर्थात् प्रकाशमान, सहृदयो को आह्लादित करने वाला ( गौण चेतन सिंहादि पदार्थों का स्वरूप कवियों के वर्णन का विषय बनता है)।
यथा
कदाचिदेतेन च पारियात्रगुहागृहे मीलितलोचनेन |
व्यत्यस्तहस्तद्वितयोपविष्टदंष्ट्राङ्कराञ्चञ्चिबुकं प्रसुप्तम् ।। ३० ।। जैसे
(किसी सिंह की स्वाप्नावस्था का वर्णन करते हुए कवि कहता है कि-) कभी पारियात्र (पर्वत विशेष) की कन्दरारूपी गृह में ( दोनों ) आँखें मूंदे हुए इस ( सिंह ) ने अपने आड़े ढंग से रखे हुए दोनों हाथों पर स्थित दाढ़ की नोक के कारण फैली हुई ढोढ़ी वाला लगते हुए शयन किया था ॥ ३० ॥
अत्र गिरिगुहागेहान्तरे निद्रामनुभवतः केसरिणः स्वजातिसमुचितं स्थानकमुल्लिखितम् । यथा वा
ग्रीवाभङ्गाभिरामं मुहुरनुपतति स्यन्दने दत्तदृष्टिः पश्चार्धन प्रविष्टः शरपतनभयाद् भूयसा पूर्वकायम् । शष्पैरर्धावलीढैः श्रमविवृतमुखभ्रंशिभिः कीर्णवर्मा
पश्योदये प्लुतत्वाद्वियति बहुतरं स्तोकमुव्या प्रयाति ॥ ३१ ॥ यहाँ पर्वत की गुफारूप गृह के भीतर निद्रा का अनुभव करते हुए सिंह की अपनी जाति के अनुरूप स्थिति का वर्णन किया गया है। अथवा जैसे-( 'अभिज्ञान शाकुन्तल' में राजा दुष्यन्त अपने सारथि से कहते हैं कि हे सारथि ! ) देखो, अपने पीछे चलते हुए रथ पर बार-बार गर्दन मोड़ने से सुन्दर दृष्टि लगाए हुए, बाण लगने के डर से ( अपने शरीर के ) पिछले अर्द्ध भाग से आगे के हिस्से में बहुत ज्यादा सिमटा हुआ, एनं परिश्रम के कारण खुले हुए मुख से गिरते हुए अर्द्धचवित कुशों को रास्ते में विखेरता हुआ ( यह हरिण ) ऊंची एवं लम्बी छलांगें मारने के कारण ज्यादातर आकाश में तथा पोड़ा-सा जमीन पर चल रहा है ॥ ३१ ॥