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तृतीयोन्मेषः
२९९ अर्थात् शृंगारादि रसों में परिणत हो जाना—क्योंकि स्थायी ही तो रस होता है ऐसा नियम है।
तिष्ठेत्कोपवशात्प्रभावपिहिता दीर्घन सा कुप्यति स्वर्गायोत्पतिता भवेन्मयि पुनर्भावामस्या मनः । तां तु विषुधद्विषोऽपि न च मे शक्ताः पुरोवर्तिनी
साचात्यन्तमगोचरं नयनयोर्यातेति कोऽयं विधिः ।। २५ ।। उसके कारण मनोहर अर्थात् हृदयावर्जक । यहाँ विप्रलम्भ शृङ्गार के विषय में उदाहरण स्वरूप 'विक्रमोशाय' नाटक के चौथे अंक में ( उशी के वियोग में ) पागल पुरूरवा के प्रलाप ( समझे जा सकते ) हैं। जैसे( राजा कुछ सोचकर कहता है कि शायद ) क्रोधवश ( अपनी अन्तर्धान विद्या के ) प्रभाव से छिपकर ( कहीं ) बैठी हो ( पर ऐसा नहीं हो सकता क्योंकि ) वह देर तक ऋद्ध नहीं रहती। (फिर सोचता है कि कहीं) स्वर्ग को ( न ) उड़ गई हो ( पर ऐसी बात भी नहीं हो सकती क्योंकि ) उसका हृदय मेरे प्रति स्नेह से सरस है। और फिर मेरे सामने स्थित उस (प्रियतमा) को हर लेने में दानव भी समर्थ नहीं हैं फिर भी वह आंखों के सामने बिल्कुल दिखाई नहीं पड़ती, न जाने भाग्य कैसा है अथवा न जाने क्या बात है ॥ २५ ॥ ___ अत्र राज्ञो वल्लभाविरहवैधुर्यदशावेशविवशवृत्तेस्तदसंप्राप्तिनिमित्तमनधिगच्छतः प्रथमतरमेव स्वभाविकसौकुमार्यसंभाव्यमानम् अनन्तरोचितविचारापसार्यमाणोपपत्ति किमपि तात्कालिकविकल्पोल्लिख्यमानमनवलोकनकारणमुत्प्रेक्षमाणस्य तदासादनसमन्वयासंभवान्नैराश्यनिश्चयविमूढमानसतया रसः परां परिपोषपदवीमधिरोपितः ।
तथा चैतदेव वाक्यान्तरैरुद्दीपितं यथा
यहाँ पर प्रियतमा ( उर्वशी ) के वियोग की विकलता की अवस्था के अभिनिवेश से व्याकुल हृदय तथा उसकी अनुपलब्धि के कारण को न समझते हुए, न दिखाई पड़ने के कारण का अनुमान करने वाले राजा की सर्वप्रथम ही सहज सुकुमारता से अनुमानित किया गया एवं तुरन्त बाद में उचित विचार के कारण अनुपपन्न हो गया उस समय के विकल्पों से वर्णित किये गये न दिखाई पड़ने के कारण का अनुमान करनेवाले राजा से उसकी प्राप्ति सम्बन्ध के असम्भव होने से निराशा के निश्चित हो जाने से मुग्ध चित्त होने के कारण रस अपने परिपोष की पराकाष्ठा को पहुंच गया है।