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वक्रोक्तिजीवितम्
पद्भयां स्पृशेद्वसुमतीं यदि सा सुगात्री मेधाभिवृष्टसिकतासु वनस्थलीषु । पश्चान्नता गुरुनितम्बतया ततोऽस्या
दृश्येत चारुपदपङ्क्तिरलक्तकाङ्का ।। २६ ।। और जैसे कि यही ( विप्रलम्भ शृङ्गार ) अन्य श्लोकों द्वारा भी उद्दीप्त कराया गया है। जैसे—(पुरूरवा ही कहता है कि ) यदि वह सुन्दर अङ्गों वाली (प्रियतमा उर्वशी) बादलों से गीली बालुकामय वनभूमि में पृथ्वी का पैरों से स्पर्श करती तो भारी नितम्बों के कारण इसकी, महावर से चिह्नित सुन्दर चरणपंक्ति पीछे की ओर अधिक गहरी दिखाई पड़ती ॥ २६ ॥
अत्र पद्भयां वसुमती कदाचित् स्पृशेदित्याशंसया तत्प्राप्तिः संभाव्येत । यस्माजलधरसलिलसेकसुकुमारसिकतासु वनस्थलीषु गुरुनितम्बतया तम्याः पश्चान्नतत्वेन नितरां मुद्रितसंस्थानां रागोपरक्ततया रमणीयवृत्तिश्चरणविन्यासपरंपरा दृश्येत, तस्मान्नैराश्यनिश्चिातरेव सुतरां समुज्जम्भिता, या तदुत्तरवाक्योन्मत्तविलपितानां निमित्ततामभजत् । __यहाँ 'शायद कहीं पृथ्वी का पैरों से स्पर्श करती' इस आशा से उसकी प्राप्ति सम्भव हो सकती। क्योंकि बादलों के जल से सींची होने के कारण • कोमल बालुका वाली वनस्थलियों में भारी नितम्बों से युक्त होने के कारण उसके पीछे झुके होने से अत्यधिक चिह्नित स्थानों वाली एवं महावर से रंगी होने के कारण सुन्दर पदविन्यास की श्रृंवाला दिखाई पड़ती, इस प्रकार निराशा का निश्चय ही अच्छी तरह से व्यक्त किया गया है जो उसके बाद के श्लोकों के उन्मत्त विलाप का कारण बन गया है।
करुणरसोदाहरणानि तापसवत्सराजे द्वितीयेऽङ्के वत्सराजस्य परिदेवितानि | यथा
धारावेश्म विलोक्य दीनवदनो भ्रान्त्वा च लीलागृहनिश्वस्यायतमाशु केसरलतावीथीषु कृत्वा दृशः । किं मे पार्श्वमुपैषि पुत्रक कृतैः किं चाटुभिः क्रूरया
मात्रा त्वं परिवर्जितः सह मया यान्त्यातिदीर्घा भुवम् ।। २ ।। करुण रस के उदाहरण 'तापसवत्सराज' के द्वितीय अंक में वत्सराज उदयन के प्रलाप ( समझे जा सकते हैं )। जैसे-( वासवदत्ता के पालतू