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तृतीयोन्मेषः
२८९ (और यह ) सातिशयता तो 'उत्प्रेक्षातिशयान्विता' इस ( भामह की उत्प्रेक्षा ) के अपने लक्षण के....."में ही ( प्रतिपादित किया गया है) तथा अतिशयोक्ति की 'कोऽलङ्कारोऽनया विना' के द्वारा समस्त अलङ्कारों की अनुग्राहकता ) प्रतिपादित ही की गई ) है। अतः ( अगर इसे आप ) अलग से प्रधानतया यह अतिशयोक्ति हो है ( उत्प्रेक्षा नहीं ) ऐसा कहें तो भी कुछ अन्तर नहीं पड़ता । ( क्योंकि ) कविशक्ति द्वारा उत्प्रेक्षित रूप में बिल्कुल असम्भाव्य वस्तु भी इसी युक्ति से उपनिबद्ध होकर युक्तिसंगत होती है। न कि स्वच्छन्दतापूर्णक उपनिबद्ध किये जाने पर। अथवा निमित्ततः कथन की लोकातिक्रान्तगोचरता के कारण यहाँ वही ( अतिशयोक्ति अलङ्कार ही) मान लिया जाय तो भी वर्ण्यमान ( पदार्थ ) के उत्कर्ष के प्रतिपादन से भिन्न और कोई अपूर्णता यहां नहीं आ जायगी। ( अतः उत्प्रेक्षा ही मानना समीचीन है )।
तदेवममिधानस्य पूर्वमभिधेयस्य चेह वक्रतामभिधायेदानी वाक्यस्य वक्रत्वमभिधातुमुपक्रमते
मार्गस्थवक्रशब्दार्थगुणालङ्कारसंपदः । अन्यद्वाक्यस्य वक्रत्वं तथाभिहितिजीवितम् ॥ ३ ॥ मनोज्ञफलकोल्लेखवर्णच्छायाश्रियः पृथक् । चित्रस्येव मनोहारि कतः किमपि कौशलम् ॥ ४ ॥
तो इस प्रकार पहले ( द्वितीयोन्मेष में ) शब्द की एवं अभी (तृतीयो. न्मेष के प्रारम्भ में ) अर्थ की वक्रता का प्रतिपादन कर अब वाक्य की वक्रता का प्रतिपादन प्रारम्भ करते हैं
( सुकुमारादि ) मार्गों में विद्यमान वक्र शब्दों, अर्थो, गुणों एवं अलङ्कारों की सम्पत्ति से भिन्न, चित्र के मनोहर चित्रपट, ( उस पर अंकित ) रेखाचित्र, ( उसके ) रङ्गों तथा ( उसकी) कान्ति से भिन्न चित्रकार को किसी अलौकिक निपुणता के समान, उस प्रकार के ( अनिर्वचनीय) ढङ्ग से वर्णन रूप प्राणवाली कवि की कुछ अपूर्ण सरलता वाक्य की वक्रता होती है ।। ३-४ ॥
अन्यद्वाक्यस्य वक्रत्वम्-वाक्यस्य परस्परान्वितवृत्तेः पदसमुदायस्यान्यदपूर्व व्यतिरिक्तमेव वक्रत्वं वक्रभावः । भवतीति संबन्धः, क्रियान्तराभावात् । कुतः-मार्गस्थवक्रशब्दार्थगुणालंकारसंपदः ।
१६ व० जी०