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वक्रोक्तिजीवितम्
के विषय में प्रियतम की प्राप्ति को उत्कण्ठा से अत्यन्त हर्षित मुरसुन्दरियों के समुदाय द्वारा संगृहीत किए जाते हुए मन्दार आदि फूलों की हजारों मालाओं की उत्प्रेक्षा के अनुमान से नन्दनवन के वृक्षों की कुसुमसमृद्धिः के प्रध्वंस भाव की सिद्धि की सुन्दर उत्प्रेक्षा की गई है। क्योंकि कविजन उत्प्रेक्षा विषयक वस्तु को 'यह उसके समान लगती है' अथवा 'यह वही जान पड़ती है' इन दो रूपों में उपनिबद्ध करते हैं, इसका विवेचन हम उसका लक्षण करते समय करेंगे। इस प्रकार पूवार्द्ध में प्रतिपादित अप्रस्तुतप्रशंसा के संसर्ग से रमणीय यह उत्प्रेक्षा प्रस्तुत नरपति के शौर्यातिशय को परिपुष्ट करने में समर्थ होकर भलीभाँति उल्लसित होती हुई काव्यमर्मज्ञों को आह्लादित करती है।
( इसके अनन्तर कुन्तक सम्भवतः उन लोगों की बात का समाधान करते हैं जो यहाँ अतिशयोक्ति अलङ्कार बताते हैं । कुन्तक इस बात को सिट करते हैं कि अतिशयोक्ति तो सर्वत्र सभी अलङ्कारों में विद्यमान ही रहती है। जैसा कि भामह ने 'कोलङ्कारोऽनया विना' के द्वारा प्रतिपादित किया है। वहाँ ‘अतिशय' से तात्पर्य 'लोकातिक्रान्तगोधरता' से तो है किन्तु अतिशयोक्ति अलङ्कारविशेष से नहीं क्योंकि अतिशयोक्ति अलङ्कारविशेष का लक्षण है
निमित्ततो बचो यत्तु लोकातिक्रान्तगोचरम् । मन्यन्तेऽतिशयोक्ति तामलङ्कारतया यया ॥ का० अ० २१८१ यहाँ निमित्त का होना आवश्यक है । इसीलिये आगे कुन्तक ने भी कहा है__'यद्वा कारणतो लोकातिक्रान्तगोचरत्वेन वचसः सैवेयमित्यस्तु' इत्यादि ।
इसी बात को प्रतिपादित करते हुए कि अतिशय तो सन्त्र विद्यमान रहता है वे कहते हैं कि
उत्प्रेक्षातिशयान्विता ।। १४ ॥ इत्यस्याः, स्वलक्षणानुप्रवेश इत्यतिशयोक्तेश्च
कोऽलंकारोऽनया विना ॥ १५॥ इति सकलालकरणानुग्राहकत्वम् । तस्मात् पृथगतिशयोक्तिरेवेयं । मुख्यतयेत्युच्यमानेऽपि न किंचिदतिरिच्यते । कविप्रतिभोत्प्रेक्षितत्वेन चात्यन्तमसंभाव्यमप्युपनिबध्यमानमनयैव युक्त्या समन्जसतां गाहते । न पुनः स्वातन्त्र्येण । यद्वा कारणतो लोकातिक्रान्तगोचरत्वेन वचसः सैवेयमित्यस्तु, तथापि प्रस्तुतातिशयविधानव्यतिरेकेण न .. किंचिदपूर्वमत्रास्ति ।