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तृतीयोग्मेषः
२८७ संप्रामेष्वलभाभिधाननृपतौ दिव्याङ्गनाभिः स्रजः
प्रोज्मन्तीभिरविद्यमानकुसुमं यस्मात्कृतं नन्दनम् ॥ १३ ॥ (निम्न श्लोक में कवि किसी अप्रस्तुत राजा के यश का वर्णन इस प्रकार प्रस्तुत करता है___ अरे ! तुम कौन हो ? मैं स्वर्ग में माली हूँ। यहाँ (पृथ्वी पर ) कैसे ( पधारे) ? फूल लेने आया हूँ। क्या किसी पुष्पोत्सव अथवा (पुष्पयोग) के लिए ( फल ) खरीदते हो? अगर आप को बड़ा अचरज है तो सुनिए । क्यों सङग्राम में ( किसी ) अज्ञातनामा नरपति के ऊपर पुष्पहारों की वर्षा करती हुई दिमागनाओं ने ( स्वर्गस्थ ) नन्दन ( वन ) को फूलों से विहीन कर दिया है ॥ १३ ॥
तदेवंविधे विषये वर्णनीयवस्तुविशिष्टातिशयविधायी विभूषणविन्यासो विधेयतां प्रतिपद्यते । तथा च-प्रकृतमिदमुदाहरणमलंकरण: कल्पनं विना सम्यङ् न कथंचिदपि वाक्यार्थसङ्गति भजते । यस्मात् प्रत्यक्षादिप्रमाणोपपत्तिनिश्चयाभावात् स्वाभाविकं वस्तु धर्मितया व्यवस्थापनां न सहते, तस्माद्विदग्धकविप्रतिभोल्लिखितालंकरणगोचरत्वेनैष सहृदयहृदयाह्लादमादधाति । तथा च, दुःसहसमरसमयसमु. चितशौर्यातिशयश्लाघया प्रस्तुतनरनाथविषये वल्लभलाभरभसोल्ल. सितसुरसुन्दरीसमूहसंगृह्यमाणमन्दारादिकुसुमदामसहस्रसंभावनानुमा. नानन्दनोद्यानपादपप्रसूनसमृद्धिप्रध्वंसभावसिद्धिः समुत्प्रेक्षिता | यस्मादुत्प्रेक्षाविषयं वस्तु कवयस्तदिवेति तदेवेति वा द्विविधमुपनिबध्नन्ती
येतत्तल्लक्षणावसर एव विचारयिष्यामः । तदेवमियमुत्प्रेक्षा पूर्वार्धविहिता प्रस्तुतप्रशंसोपनिबन्धबन्धुरा प्रकृतपाथिवप्रतापातिशयपरिपोषप्रवणतया सुतरां समुद्भासमाना तद्विदावजनं जनयति । सातिशयत्वम्
तो इस प्रकार के प्रसङ्गों में वर्णनीय पदार्थ के विशिष्ट उत्कर्ष को प्रतिपादित करनेवाला अलङ्करणविन्यास अनिवार्य हो जाता है। जैसे कि यही प्रासंगिक ('कस्त्वं भो.' इत्यादि ) उदाहरण का वाक्यार्थ विना अलङ्कार विन्यास के किसी भी प्रकार भलीभाँति सङ्गत नहीं होता। क्योंकि प्रत्यक्ष आदि प्रमाणों की युक्ति से निश्चय का अभाव होने के कारण स्वाभाविक वस्तु धर्मों के रूप में व्यवस्थित नहीं हो पाती अतः बह निपुण कवियों की शक्ति से उल्लिखित अलङ्कारों का विषय बन कर ही सहृदयहृदय को आनन्दित करती है। जैसे कि ( इसी उदाहरण में ) अत्यन्त भीषण संग्रामकाल के अनुरूप शोर्य के उत्कर्ष की प्रशंसा द्वारा प्रकृत नरपति