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वक्रोक्तिजीवितम् अनुमान की महत्ता से अलग-अलग अपूर्व सृष्टि की सम्भावना की गई है। और इसीलिए इन तीनों ( चन्द्र, काम एवं वसन्त रूप ) कारणों का सभी विशेषणों के साथ 'स्वयम्' यह पद सम्बद्ध होता हआ इसी ( अनुमान ) को भली भांति पुष्ट करता है। जैसे कि जो स्वयं ही कमनीय कान्ति वाला ( चन्द्रमा ) है उसके लिये सौजन्य के अनुरूप अरोचकी होने के कारण कान्ति से सम्पन्न कार्य करने की निपुणता ही उपयुक्त प्रतीत होती है। तथा जो स्वयं ही एकमात्र शृङ्गार में आनन्द लेने वाला है उसके सहृदय ( या रसिक ) होने के कारण ही सरस वस्तु के निर्माण की कुशलता उचित प्रतीत होती है। और जो स्वयं ही फूलों की खान है उसके सहज सोकुमार्य के कारण उस प्रकार का सुकुमार ही निर्माण उपयुक्त प्रतीत होता है। इसीलिए ( श्लोक के ) अपरार्द्ध में प्रयुक्त विशेषणों के द्वारा कान्ति-सम्पन्नता आदि इन तीनों (विशेषणों ) की व्यतिरेक के द्वारा अन्य प्रकार से अनुपपन्न बताया है। क्योंकि वेदों के निरन्तर अभ्यास से मन्दबुद्धि हो जाने के कारण ब्रह्मा की कान्तिसम्पन्न वस्तु के निर्माण की अनभिज्ञता, कौतूहल के समाप्त हो जाने के कारण सरस पदार्थों के प्रति उत्पन्न विमुखता, एवं बूढ़े हो जाने के कारण सुकुमारता से सरस पदार्थ की सृष्टि के प्रति विरक्ति द्योतित होती है । तो इस प्रकार कवि ने प्रस्तुत पदार्थ की किसी लोकोत्तर रचना के विलक्षण उत्कर्ष का प्रतिपादन करने के लिए उत्प्रेक्षा रूप अलङ्कार का प्रयोग किया है । और वह (उत्प्रेक्षा अलङ्कार) सहज रमणीयता के माहात्म्य से अपने आप ही उसकी सहायक सम्पत्ति के साथ पदार्थ के उत्कर्ष को चाहता हुआ सन्देहालङ्कार के संसर्ग को स्वीकार करता है इस लिए उस (सन्देहालङ्कार) के द्वारा परिपुष्ट किया गया है । इसलिये कवि ने प्रस्तुत नायिका ( उर्वशी ) के स्वरूप की सुन्दरता रूप पदार्थ के निर्माण में किसी अलौकिक स्रष्टा की कारणतारूप अतिशय को प्रस्तुत किया है जिसके कारण वह ( नायिकास्वरूपसौन्दर्य) ही उस ( अलौकिक स्रष्टा ) के द्वारा सर्वप्रथम उत्पन्न किया गया-सा लगता है।
( इस प्रकार ) जहां-कहीं भी कवि लोग पहले पहल उत्पाद्य वस्तु को प्रबन्ध के अर्थ की भाँति अपूर्व उङ्ग से वाक्यार्थ रूप में वर्णित करते हैं,. वहीं वे केवल अपनी स्थिति के समन्वय के कारण अपने आप ही परिस्फुरित होने वाले पदार्थों के उस प्रकार के परस्पर सम्पर्क को प्रस्तुत करने वाले सम्बन्ध के कारणभूत किसी अपूर्व अतिशय को ही प्रस्तुत करते हैं, न कि ( उस पदार्थ) के स्वरूप को। जैसे
कस्त्वं भो दिवि मालिकोऽहमिह किं पुष्पार्थमभ्यागतः किं ते सूनमह क्रयो यदि महच्चित्रं तदाकर्ण्यताम् ।