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वक्रोक्तिजीवितम् से प्रस्तुत किया जाने वाला पंचम स्वर यदि ये हों तो ये तीनों लोकों को जीत लेने वाला कामदेव का बहुत दिनों से छोड़ दिया गया हुआ धनुष् भी दो-तीन दिनों में ही अभ्यास के द्वारा वशीभूत किए जाने योग्य हो सकता है ॥ ५॥ यथा वा
हंसानां निनदेषु इति ॥६॥ अथवा जैसे
( उदाहरण संख्या १७३ पर पूर्वोदाहृत ) हंसानां निनवेषु इत्यादि (श्लोक ) ॥ ६॥ यथा च
सज्जेइ सुरहिमासो ण दाव अप्पेइजुअइअणलक्खसुहे। अहिणअसहआरमुहे णवपल्लवपत्तले अणंगस्स सरे ॥ ७॥ ( सज्जयति सुरभिमासो न तावदर्पयति युवतिजनलक्ष्यसुखान् ।
अभिनवसहकारमुखान् नवपल्लवपत्रलाननङ्गस्य . शरान् ।) सया जैसे
मधुमास तरुणियों को निशाना बनाने वाले, अग्रभाग से युक्त, एवं नूतन किसलय रूप पंखों को धारण करने वाले कामदेव के बाणों को जिनमें नवमुकुलित आम्र प्रधान है, बनाता तो है लेकिन (कामदेव को प्रहार करने के लिए ) देता नहीं है ॥ ७॥
एवंविधविषये स्वाभाविकसौकुमार्यप्राधान्येन वर्ण्यमानस्य वस्तुन. स्तदाच्छादनभयादेव न भूयसा तत्कविभिरलंकरणमुपनिवभ्यते । यदि वा कदाचिदुपनिबध्यते तत्तदेव स्वाभाविकं सौकुमार्य सुतरां समुन्मीलयितुम् , न पुनरलंकारवैचित्र्योपपत्तये | यथा
इस प्रकार के स्थानों पर कविजन सहज सुकुमारता की प्रधानता से युक्त रूप में वर्णन की जाने वाली वस्तु को अत्यधिक अलङ्कारों से युक्त इसी लिए नहीं करते क्योंकि उन अलङ्कारों से उस वस्तु के सहज स्वभाव के अभिभूत हो जाने का भय रहता है। और यदि कभी ( अलङ्कारों की) रचना करते हैं तो वह केवल उसकी स्वाभाविक सुकुमारता को ही प्रकट करने के लिए, न कि मलकारों की विचित्रता का प्रतिपादन करने के लिए।