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तृतीयोन्मेषः
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(कोई किसी नवयौवना का स्वाभाविक वर्णन करते हुए कहता है कि पहले-पहल जवानी का स्पर्श करने वाली हरिणाक्षी की मधुर मन्द मुसकान, चन्चल होने के कारण रमणीय नयनों की छटा, नई-नई विलासपूर्ण बातों के कारण सरस वाणी का विकास और अनेकों हावभावों की सुगन्धि को विकसित करने वाली गति का उपक्रम ( इनमें ) कौन सी वस्तु रमणीय नहीं है ( अर्थात् सभी कुछ तो रमणीय है ) ॥ २ ॥ यथा वा
अव्युत्पन्नमनोभवा मधुरिमस्पर्शोल्लसन्मानसा मिन्नान्तःकरणं दशौ मुकुलयन्त्याघ्रातभूतोद्ममाः । रागेच्छां न समापयन्ति मनसः खेदं विनैवालसा
वृत्तान्तं न विदन्ति यान्ति च वशं कान्या मनोजन्मनः ।।३।। अथवा जैसे
(नई-नई जवानी को प्राप्त करने वाली कुमारियों का वर्णन करते हुए कवि कहता है कि) कामदेव के पूर्णज्ञान से रहित तथा ( जवानी के ) मादक स्पर्श से प्रफुल्लित हृदयों वाली कुमारियाँ प्राणियों के भ्रम का इशारा पाकर ही हृदय को टुकड़े-टुकड़े कर देती हुई आंखें बन्द कर लेती हैं। मानसिक अनुराग की अभिलाषा को नहीं समाप्त कर पाती, विना परिश्रम के ही अलसाई ( रहती हैं ) तथा पूरा वृत्तान्त नहीं जानतीं फिर भी काम के वश में हो जाती हैं ॥ ३ ॥ यथा च
दोर्मलावधि इति ॥ ४॥ तथा जैसे-( उदाहरण संख्या १२१२१ पर पूर्वोदाहृत )
'दोर्मूलावधि सूत्रितस्तनमुरो' इत्यादि पद्य युवती के प्रथमतर तारुण्य के सहज वर्णन को प्रस्तुत करता है ।। ४॥ यथा वा
गर्भग्रन्थिषु वीरुधां सुमनसो मध्येऽङ्कुर पल्लवा वाञ्छामात्रपरिग्रहः पिकवधूकण्ठोदर पञ्चमः । किंच त्रीणि जगन्ति जिष्णु दिवसैत्रैिमनोजन्मनो
देवस्यापि चिरोज्झितं यदि भवेदभ्यासवश्यं धनुः ॥ ५॥ अथवा जैसे
लताओं के गांसों की पोर पर ( खिले हुए ) पुष्प, अङ्करों के बीच (निकलते हुए ) किसलय और मादा कोयल के कविवर में बच्चामात्र