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वक्रोक्तिजीवितम् पर भी (पार्वती) सहज सौन्दर्य से आकृष्ट नयनों वाली होकर क्षण भर के लिए देर लगा दिया ( अर्थात् उनके सहज सौन्दर्य को ही एकटक देखती हुई अलङ्कार पहनाना भूल गई ) ॥ १ ॥
अत्र नथाविधस्वाभाविकसौकुमार्यमनोहरः शोभातिशयः कः प्रतिपादयितुमभिप्रेतः । अस्यालंकरणकलापकलनं सहजच्छायातिरोधानशङ्कास्पदत्वेन संभावितम् । यस्मात् स्वाभाविकसौकुमार्यप्राधान्येन वर्ण्यमानस्योदारस्वपरिस्पन्दमहिम्नः सहजच्छायातिरोधानविधायि प्रतीत्यन्तरापेक्षमलंकरणकल्पनं नोपकारितां प्रतिपद्यते । विशेषस्तुरसपरिपोषपेशलायाः प्रतीतेर्विभावानुभावव्यभिचाौचित्यव्यतिरेकेण प्रकारान्तरेण प्रतिपत्तिः प्रस्तुतशोभापरिहारकारितामावति । तथा च प्रथमतरतरुणीतारुण्यावतारप्रभृतयः पदार्थाः सुकुमारवसन्तादिसम यसमुन्मेषपरिपोषपरिसमाप्तिप्रभतयश्च स्वप्रतिपादकवाक्यवक्रताव्यतिरेकेण भूयसा न कस्यषिदलंकरणान्तरस्य कविभिरलंकरणीयतामुपनीयमानाः परिदृश्यन्ते । यथा
यहां पर कवि को उस प्रकार की अपूर्व सहज सुकुमारता से हृदयावर्जक सौन्दर्यातिशय का प्रतिपादन करना ही अभीष्ट है। इसके अलङ्कार समूह की रचना स्वाभाविक कान्ति के तिरोहित हो जाने की शङ्का से युक्त रूप में उत्प्रेक्षित है । क्योंकि सहज सुकुमारता की प्रधानता से युक्त रूप में वर्णन की जाने वाली वस्तु के अपने उत्कर्ष युक्त स्वभाव की महत्ता के स्वाभाविक सोन्दर्य को अभिभूत कर देने वाले एवं दूसरी प्रतीति की अपेक्षा वाले अलङ्कारों की रचना उपकारक नहीं होती। खास बात तो यह है कि रसों के सम्यक् पोषण से मनोहर प्रतीति का, विभाव, अनुभाव एवं व्यभिचारिभाव के औचित्य से रहित दूसरे ढङ्ग से प्रतिपादन वर्ण्यमान पदार्थ के सौन्दर्य का बाधक बन जाता है । इसीलिये अधिकतर कविजन युवती की पहले-पहल युवावस्था के प्रारम्भ रत्यादि एवं अत्यन्त कोमल वसन्त आदि ऋतुओं के प्रारम्भ, परिपोष एवं समाप्ति आदि पदार्थों को उनके प्रतिपादन करने वाली वाक्यवक्रता से भिन्न किसी दूसरे अलङ्कार के द्वारा अलंकृत करते हुए नहीं दिखाई पड़ते । जैसे
स्मितं किंचिन्मुग्धं तरलमधुरो दृष्टिविभवः परिस्पन्दो वाचामभिनवविलासोक्तिसरसः । गतानामारम्भः किसलयितलीलापरिमलः स्पशन्त्यास्तारुण्यं किमिव हि न रम्यं मृगहशः ।। २॥