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तृतीयोन्मेषः
- २७७ काव्यकरणं न यथाकथंचिदनुष्ठेयतामहति, तद्विदाह्लादकारिकाव्यलक्षणप्रस्तावात् । किंच-अनत्कृष्टधर्मयुक्तस्य वर्णनीयस्यालंकरणमप्यसमुचितभित्तिभागोल्लिखितालेख्यवन्न शोभातिशयकारितामावहति । यस्मादत्यन्तरमणीयस्वाभाविकधर्मयुक्तं वर्णनीयवस्तु परिग्रहणीयम् | तथाविधस्य तस्य यथायोगमौचित्यानुसारेण रूपकाद्यलंकार योजनया भवितव्यम् । एतावांस्तु विशेषो यत् स्वाभाविकसौन्दर्यप्राधान्येन विवक्षितस्य न भूयसा रूपकाद्यलंकार उपकाराय कल्प्यते, वस्तुस्वभावसौकुमार्यस्य रसादिपरिपोषणस्य वा समाच्छादनप्रसङ्गात् । तथा चैतस्मिन् विषये सर्वाकारमलंकाय विलासवतीव पुनरपि स्नानसमयविरहवतपरिग्रह- सुरतावसानादौ नात्यन्तमलंकरणसहतां प्रतिपद्यते, स्वाभाविकसौकुमार्यस्यैव रसिकहृदयाह्लादकारित्वात् । यथा
___ और फिर अतिशय से हीन धर्म वाली वर्ण्यमान वस्तु का अलङ्कृत करना भी दीवाल के अनुपयुक्त हिस्से पर चित्रित किये गये चित्र के समान अत्यधिक सौन्दर्य नहीं उत्पन्न कर पाता। अतः अत्यधिक मनोहर सहज धर्म से सम्पन्न वर्षामान वस्तु को ही उपनिबद्ध करना चाहिए। तदनन्तर उस प्रकार की ( सहज रमणीय धर्म से युक्त ) उस वस्तु के औचित्य को ध्यान में रखते हुए यथासम्भव रूपकादि अलङ्कारों को उपनिबद्ध करना चाहिए। हाँ यह विशेषता जरूर है कि जिस वस्तु के वर्णन में सहज रमणीयता ही प्रधान रूप से अभिप्रेत है उसके प्रतिपादन में बहुत से रूपकादि अलङ्कारों का प्रयोग उपयुक्त नहीं होता क्योंकि उससे या तो उस वर्ण्य पदार्थ की सहज सुकुमारता ही नहीं प्रकट हो पाती अथवा शृङ्गारादि रसों का पूर्ण परिपोष नहीं हो पाता। क्योंकि इस विषय में सब तरह से अलङ्कृत करने योग्य वस्तु भी अत्यधिक अलङ्कारों को उसी प्रकार नहीं सहन कर पाती है जैसे कि विलासिनी स्त्री नहाते समय, या विरह के कारण व्रत धारण किए रहने पर, अथवा सम्भोग की समाप्ति पर अत्यधिक अलङ्कारों को नहीं सहन कर पाती, क्योंकि उस समय उसकी सहज सुकुमारता ही सहृदयों के हृदयों को आनन्दित करती है । जैसेतां प्राङ्मुखीं तत्र निवेश्य तन्वीं क्षणं व्यलम्बन्त पुरो निषण्णाः । भूतार्थशोभाह्रियमाणनेत्राः प्रसाधने संनिहितेऽपि नार्यः ।। १ ।।
(कुमारसम्भव में पार्वती की सहज शोभा से शृङ्गार करने वाली नारियों के मुग्ध हो जाने का यह वर्णन कि-( अन्तःपुर की) खियाँ कृशाङ्गी उन (पार्वती ) को वहाँ ( अलमारगृह मण्डप में ) पूर्वाभिमुख बैठा कर सामने ( अलङ्कार पहनाने के लिये ) बैठी हुई अलङ्कारादि के समीप विद्यमान रहने