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द्वितीयोन्मेषः
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इस प्रकार नाम, आख्यात, उपसर्ग एवं निपात रूप चार प्रकार के पद को वक्रता का यथासम्भव विवेचन कर अब इस प्रकरण का उपसंहार करके दूसरे प्रकरण को अवतरित करते हैं
वाग्वल्ल्याः पदपल्लवास्पदतया या वक्रतोद्भासिनी विच्छित्तिः सरसत्वसंपदुचिता काप्युज्ज्वला जम्भते । तामालोच्य विदग्धषटपदगणैर्वाक्यप्रसूनाश्रयि स्फारामोदमनोहरं मधु नवोत्कण्ठाकुलं पीयताम् ।।३।। वाणीरूपी लता को पदरूपी किसलयों के आश्रय से सरसत्त्व ( श्रृङ्गारादि की व्यञ्जकता, एवं तात्कालिक रस की प्रचुरता) की सम्पत्ति से सम्पन्न वक्रता (उक्तिवैचित्र्य, एवं बालचन्द्र के सदृश सुन्दर रचना का संयोग से सुशोभित होने वाली एवं उज्ज्वल ( संघटना की सुन्दरता से युक्त एवं पत्तों की शोभा से युक्त ) जो कोई अलौकिक विच्छित्ति (कवि-कौशल की कमनीयता एवं सुन्दर ढङ्ग से पत्तों का विभाग ) उल्लसित होती है, उसका विचार करके सहृदय रूप भ्रमरों का समूह वाक्यरूपी पुष्पों के आश्रय वाले अत्यधिक आमोद ( सहृदयह्लादकारिता एवं सुगन्धि ) के कारण हृदयावर्जक मधु ( समस्त काव्य की कारण सामग्री के उदय एवं मकरन्द ) का नवीन उत्कण्ठा से व्याकुल होकर पान करें ।। ३५ ॥
वागेव वल्ली वाणीलता तस्याः काप्यलौकिकी विच्छित्तिर्जम्भते शोभा समुल्लसति । कथम्-पदपल्लवास्पदतया। पदान्येव पल्लवानि सुपतिङन्तान्येव पत्राणि तदा स्पदतया तदाश्रयत्वेन । कोदशी विच्छितिः-सरसत्वसंपदुचिता, रसवत्त्वापातिशयोपपन्ना । किविशिष्टा चवक्रतया वक्रभावेनोद्धासते भ्राजते या सा तथोक्ता। कीदृशी-उज्ज्वला छायातिशयरमणीया । तामेवंविधामालोच्य विचार्य विदग्धषटपदगणेविबुधषट्चरणचक्रर्मधु पीयतां मकरन्द प्रास्वाद्यताम् । कीदृशम्वाक्यप्रसूनाश्रयम्। वाक्यान्येव पदसमुदायरूपाणि प्रसूनानि पुष्पाण्याश्रयः स्थानं यस्य तत्तथोक्तम् । अन्यच्च कोदशम्स्फारामोदमनोहरम् । स्फारः स्फीतो योऽसावामोदस्तद्धर्मविशेषस्तेन मनोहरं हृदयहारि। कथमास्वाद्यताम्-नवोत्कण्ठाकुलं नूतनोकलिकाव्यग्रम् । मधुकरसमूहाः खलु वल्ल्याः प्रथमोल्लसितपल्लवोल्लेखमालोच्य प्रतीतचेतसः समनन्तरोद्भिन्नसुकुमारसुकुममकरन्दपानमहोत्सवमनुभवन्ति । तद्वदेव सहृदयाः पदास्पदं कामपि वक्रता.