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________________ २७० वक्रोक्तिजीवितम् ( वक्रताओं के ) प्रभेद एकत्र होकर इसे विवित्र कान्तियों से रमणीय बना देते हैं ॥ ३४ ॥ क्वचिदेकस्मिन् पदमात्रवाक्ये वा वक्रताप्रकारा वक्रत्वप्रभेवा बहवः प्रभूताः कविप्रतिभामाहात्म्यसमुल्लसिताः। किमर्थम्-परस्परस्य शोभाय, अन्योन्यस्य विच्छित्तये। एतामेव चित्रछायामनोहरामनेकाकारकान्तिरमणीयां वक्रतां जनयन्त्युत्पादयन्ति । यथा तरन्तीव इति ॥ ११६ ॥ कही-कहीं का अर्थ है केवल एक पद में अथवा एक वाक्य में बहुत से वक्रताप्रकार, बांकपन के प्रभेद कवि को शक्ति महत्ता (प्रभाव ) से उत्पन्न होकर। किस लिए--परस्पर की शोभा के लिये एक दूसरे को रमणीयता के लिए ( उत्पन्न होकर ) इसी वक्रता को विचित्र छाया से मनोहर अर्थात् अनेक प्रकार की कमनीयता से रमणीय बना देते हैं। जैसे ( उदाहरण संख्या २।९१ पर पूर्वोद्धृत ) 'तरन्तीवाङ्गानि' इत्यादि पद ॥ ११३॥ अत्र क्रियापदानां त्रयाणामपि प्रत्येकं त्रिप्रकारं वैचित्र्यं परिस्कुरति- . क्रियावैचित्र्यं कारकवैचित्र्यं कालवैचित्र्यं च । प्रथिम-स्तन-जघनतरुणिम्नां त्रयाणामपि वृत्तिवैचित्र्यम् । लावण्यजलधि-प्रागम्यसरलता-परिचय-शब्दानामुपवारवैचित्र्यम् । तदेवमेते बहवो वक्रताप्रकारा एकस्मिन् पदे वाक्ये वा संपतिताश्चित्रच्छायामनोहरामेतामेव चेतनचमत्कारकारिणों वाक्यवक्रतामावहन्ति । यहाँ तीनों ही कियापदों में से हर एक की तीन प्रकार की विचित्रता प्रकाशित होती है-(१) क्रिया की विचित्रता, (२) कारक की विचित्रता तथा (३) काल की विचित्रता। 'प्रथिम' 'स्तनजवन' एवं 'तरुणिमा' तीन शब्दों में वृत्तिवैचित्र्य की वक्रता है। 'लावण्य', 'जलधि', 'प्रागल्भ्य' 'सरलता' एवं 'परिचय शब्दों में उपचारवकता है। तो इस प्रकार ये बहुत से वक्रताओं के प्रभेद एक ही पद अथवा वाक्य में साथ ही एकत्र होकर चित्र की शोभा के सदृश चित्ताकर्षक, सहृदयों को आनन्द प्रदान करने वाली इसी वाक्यवक्रता को धारण करते हैं । एवं नामाख्यातोपसर्गनिपातलक्षणस्य चतुर्विषस्थापि पदस्य यथासंभवं वक्रताप्रकारान् विचार्येदानों प्रकरणमुपसंहृत्यान्यववतारयति -
SR No.009709
Book TitleVakrokti Jivitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRadhyshyam Mishr
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages522
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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