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वक्रोक्तिजीवितम् परस्मैपदं वा विनियुज्यते विनिबध्यते नियमेन । कस्मात्कारणात्
औचित्यात् । वर्ण्यमानस्य वस्तुनो यदौचित्यमचितभावस्तस्मात्, तं समाश्रित्येत्यर्थः । किमर्थम्-शोभायै विच्छित्तये । यथा
प्रतिपादित किए गये स्वरूप वाली उस (वः पा) को कविजन उपग्रहवक्रत अर्थात् उपग्रह के कारण उत्पन्न बांकपन की शोभा कहते हैं। कैसी ( वक्रता को )---जहाँ अर्थात् जिस ( वक्रता ) में दोनों पदों के मध्य से आत्मनेपद अथवा परस्मैपद एक का विनियोग अर्थात् नियमपूर्वक विशेषरूप से प्रयोग किया जाता है । किस कारण से -औचित्य के कारण । वर्णन की जाने वाली वस्तु का जो औचित्य अर्थात् उपयुक्तता होती है उसके कारण अर्थात् उसका आश्रय ग्रहण कर। किस लिये-शोभा अर्थात् रमणीयता के लिये । जैसे
तस्यापरेष्वपि मृगेषु शरान्मुमुक्षोः कर्णान्तमेत्य बिभिदे निविडोऽपि मुष्टि । त्रासातिमात्रचटुलैः स्मरयत्सु नेत्रः
प्रौढप्रियानयनविभ्रमचेष्टितानि ॥१०६ ॥ भय के कारण अत्यधिक चञ्चल नयनों से ( साम्य के कारण ) प्रगल्म प्रिया के नेत्र विलासों के व्यापार का स्मरण कराने वाले दूसरे हरिणों पर भी बाण चलाने की इच्छा वाले उस ( राजा दशरथ ) की अत्यन्त दृढ़ मुट्ठी भी श्रवण पर्यन्त पहुँचकर शिथिल हो गई ॥ १०६ ॥
प्रत्र राज्ञः सुललितविलासवतीलोचनविलासेषु स्मरणगोचरमवतरत्सु तत्परायत्तचित्तवृत्तेराङ्गिकप्रयत्नपरिस्पन्दविनिवर्तमाना मुष्टिबिभिवे भिद्यते स्म । स्वयमेवेति कर्मकर्त निबन्धनमात्मनेपदमतीव चमत्कारिणी कामपि वाक्यवऋतामावहति ।। - यहाँ विलासवती ( प्रियतमा) के सुन्दर हाव भावों से युक्त नेत्र व्यापारों की याद आ जाने से उसके वशीभूत चित्तवृत्ति वाले राजा ( दशरथ ) को शारीरिक प्रयास के व्यापार से हीन मुट्ठी अपने आप ही भिन्न अर्थात् शिथिल हो गई । इस कर्म कर्ता का कारण आत्मनेपद अत्यन्त ही चमत्कार को उत्पन्न करने वाली किसी ( अपूर्व ) वाक्यवक्रता को धारण करता है ।
एवमुपंपहवतां विधार्य तदनुसंभाविनी प्रत्ययान्सरवक्रता . विचारयति