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द्वितीयोन्मेष:
२६५ विहितः प्रत्ययादन्यः प्रत्ययः कमनीयताम् ।
यत्र कामपि पुष्णाति सान्या प्रत्ययवकता ।। ३२ ।। इस प्रकार उपग्रहवक्रता का विवेचन कर उसके बाद सम्भव होने वाली दूसरे प्रत्ययों की वक्रता का विवेचन करते हैं
जहाँ ( तिङ्गादि ) प्रत्यय से किया गया प्रत्यय किसी अपूर्व रमणीयता को पुष्ट करता है वह दूसरी प्रत्ययवक्रता होती है ॥ ३२ ।
सान्या प्रत्ययवक्रता सा सामाम्नातरूपादन्यापरा काचित प्रत्ययवक्रत्वविच्छित्तिः। अस्तीति संम्बन्धः। यत्र यस्यां प्रत्ययः कामप्यपूर्वा कमनीयतां रम्यतां पुष्णाति पुष्यति। कीदृशः-प्रत्ययात् तिङादेविहितः पदत्वेन विनिर्मितोऽन्यः कश्चिदिति ।। __वह दूसरी प्रत्ययवक्रता होती है अर्थात् जिसका स्वरूप पहले बताया गया है उससे भिन्न कोई ( नवीन ) प्रत्ययों के संकपन का सौन्दर्य होता है । ( इस कारिका का 'अस्ति' क्रिया के साथ सम्बन्ध है। ) जहाँ अर्थात् जिस ( वकता) में प्रत्यय किसी अपूर्व कमनीयता अर्थात् सुन्दरता को पुष्ट करता है। कैसा (प्रत्यय)-तिङादि प्रत्ययों से किया गया पद रूप से बनाया गया कोई दूसरा प्रत्यय ( जहाँ रमणीयता का पोषण करता है वह प्रत्ययवक्रता होती है )। जैसे
लीनं वस्तुनि येन सूक्ष्मसुभगं तत्त्वं गिरा कृष्यते निर्मातुं प्रभवेन्मनोहरमिदं वाचैव यो वाक्पतिः । वन्दे द्वावपि तावहं कविवरौ वन्देतरां तं पुन
? विज्ञातपरिश्रमोऽयमनयोर्भारावतारश्रमः ॥१०७॥ जो अपनी वीणा के द्वारा वस्तुओं में गुप्त रूप से निहित सूक्ष्म सुन्दर तत्त्व को बारष्ट कर लेता है और जो वाचस्पति अपनी वाणी के ही द्वारा यह रमणीयता तत्व प्रस्तुत कर देने में समर्थ होता है उन दोनों कविवरों को मैं प्रणाम करता हूँ और फिर उस ( महापुरुष ) को और भी अधिक प्रणाम करता हूँ जो परिश्रम को भलीभाँति समझ कर इन दोनों का बोझ उतार ले सकने में सक्षम हो सकता है ॥ २०७॥ .. 'वन्देतराम्' इत्यत्र कापि प्रत्ययवक्रता कवेश्चेतसि परिस्फुरति । तत एव 'पुनः' शब्द पूर्वस्माद्विशेषाभिषायित्वेन प्रयुक्तः।