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द्वितीयोन्मेषः
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ग्रहण कर ली गई । रियों का हृदय प्रियतम के वियोग से विह्वल होता ही है अतः इस विषय में मेरा मन सदा से ही कुछ कह सकने में असमर्थ रहा है। इसके आगे स्वयं देवी जाने ( कि उन्हें क्या करना चाहिए)।। १०५ ॥
अत्र 'जानातु देवी स्वयम्' इति युष्मदि मध्यमपुरुषे प्रयोक्तव्ये प्रातिपदिकमात्रप्रयोगेण वक्तुस्तदशक्त्यनुष्ठानतां, मन्यमानस्यौदासीन्यप्रतीतिः। तस्याश्च प्रभुत्वात् स्वातन्त्र्येण हिताहितविचारपूर्वकं स्वयमेव कर्तव्यार्थप्रतिपत्तिः कमपि वाक्यवक्रभावमावहति । यस्मादेतदेवास्य वाक्यस्य जीतित्वेन परिस्फुरति ।
यहाँ 'युष्मद्' शब्द के मध्यम पुरुष के प्रयोग करने के स्थान पर 'देवी स्वयं जानें' इस केवल प्रातिपदिक के प्रयोग के द्वारा उसके द्वारा न किए जा सकने योग्य कार्य को जानने वाले वक्ता के औदासीन्य की प्रतीति होती है। तथा उसके प्रभु होने के कारण स्वतन्त्रतापूर्वक हित एवं अहित को ध्यान में रखकर कर्तव्य के लिये विचार करना किसी ( लोकोत्तर ) वाक्यवक्रता को धारण करता है । क्योंकि यही इस वाक्य के प्राण रूप से स्फुरित होता है। ___ एवं पुरुषवक्रतां विचार्य पुरुषाश्रयत्वादात्मनेपदपरस्मैपदयोरुचिताबसरां वक्रतां विचारयति । धातूनां लक्षणानुसारेण नियतपदाश्रयः प्रयोग पूर्वाचार्याणाम् 'उपग्रह-शब्दाभिधेयतया प्रसिद्धः तस्मात्तदभिधानेनैव व्यवहरति
पदयोरुभयोरेकमौचित्याद् विनियुज्यते ।
शोभायै या जल्पन्ति--तामुपग्रहवकताम् ॥ ३१॥ इस प्रकार पुरुषवक्रता का विवेचन कर पुरुषों के आश्रय होने के कारण, उपयुक्त अवसर प्राप्त, आत्मनेपद एवं परस्मैपद की वक्रता का विवेचन करते हैं। आचार्यों में, धातुओं का लक्षण के अनुसार निश्चित पद के बाय वाला प्रयोग 'उपग्रह' शब्द के द्वारा प्रतिपादित किया गया है। इसलिये. उसी नाम से ही ( प्रन्थकार कुन्तक भी ) व्यवहार करते हैं
जहाँ पर औचित्य के कारण सौन्दर्य की सृष्टि के लिए (आत्मनेपद) एवं परस्मैपद ) दोनों पदों में से एक का विशेष रूप से प्रयोग किया जाता है, उसे ( कविजन ) उपग्रह वक्रता कहते हैं ॥ ३१॥
तामुक्तस्वरूपामुपग्रहवक्रतामुपग्रहवक्रत्वविच्छित्ति जल्पन्ति कवयः कथयन्ति । कोदशी-यत्र यस्यां पदयोरुभयोर्मध्यादेकमात्मनेपदं