________________
द्वितीयोन्मेषः
१० . x
यथा वा
स दहतु दुरितं शाम्भवो वः शराग्निः ॥ ८ ॥ अथवा जैसे
शरण में आये हुए लोगों की विपत्ति का छेदन करनेवाले नाखून ( आप लोगों की रक्षा करें)॥८७ ॥
अथवा जैसे
वह शङ्कर भगवान के बाणों की आग आप सबके पापों को भस्म कर दें ॥८॥
एतयोर्वैचित्र्यं पूर्वमेव प्रदर्शितम् ।
इन दोनों उदाहरणों का वैचित्र्य पहले ही ( उदा० सं० ११५९ एवं ११६० की व्याख्या करते समय ) दिखाया जा चुका है।
अयमपरः क्रियावैचित्र्यवक्रतायाः प्रभेदः-स्वविशेषणवैचित्र्यम् । मुख्यतया प्रस्तुतत्वात् क्रियायाः स्वयमात्मनो यद् विशेषणं भेदकं तेन वैचित्र्यं विचित्रभावः । यथा
(३ ) यह 'अपने विशेषण के कारण विचित्रता' क्रियावैचित्र्यवक्रता का अन्य तीसरा भेद है। प्रधान रूप से वर्णित होने के कारण क्रिया का जो अपना ही निजी विशेषण अर्थात् ( दूसरी सजातीय क्रियाओं से उसे) भिन्न करने वाला है, उसके कारण जो वैचित्र्य अर्थात् विलक्षणता होती है, ( वह क्रियावैचित्र्यवक्रता का तृतीय भेद है ) जैसे --
इत्युद्गते शशिनि पेशलकान्तिदूतीसंलापसंवलितलोचनमानसाभिः । अग्राहि मण्डनविधिवितरीतभूषा
विन्यासहासितसखोजनमङ्गनाभिः ॥८६॥ इस प्रकार चन्द्रोदय के अनन्तर सुकुमार कान्तिवाली दुतियों के सुन्दरवचनों में संलग्न नेत्रों एवं चित्तवाली स्त्रियों ने, विपरीत अलङ्कार रचना के कारण सखियों को हंसानेबाली अलङ्करण पद्धति को ग्रहण किया। ८९॥
अत्र मण्डनविधिग्रहणलक्षणायाः क्रियाया विपरीतभूषाविन्यासहासितसखीजनमिति विशेषणेन किमपि सौकुमार्यमुन्मीलितम। यस्मात्तथाविधादरोपरचितं प्रसाधनं यस्य व्यञ्जकत्वेनोपात्तं मुख्यतया वर्ण्यमानवृत्तेर्वल्लभानुरागस्य सोऽप्यनेन सुतरां समुत्तेजितः।